SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 68
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ द्वितीय खण्ड : ५५ महेन्द्रकुमारजी तो अलग हो गये, किन्तु पं० कैलाशचन्द्रजी कुछ दिनों तक उससे जुड़े रहे। पं० कैलाशचन्द्रजी के अलग हो जानेपर अनुवाद संपादन आदिका पूरा भार पिताजीको ही सम्भालना पड़ा। - इसके बाद कुछ दिन तो पिताजी वेतन पर ही काम करते रहे, परन्तु कुछ अड़चन उपस्थित होने पर पिताजी नौकरीसे अलग हो गये । समझौता होने पर अपने घरसे ही स्वतन्त्र रूपसे कषायपाहुड़के सम्पादनका कार्य करने लगे। इस बीच पिताजीको लीवर हो गया । डाक्टरकी सलाहसे अन्न छोड़ना पड़ा और केवल फलोंके रस और दूध पर ही उन्हें निर्वाह करना पड़ा। इस कारण आजीविका बन्द हो गई तथा घरकी स्थिति बिगड़ने लगी। घरका सोना-चाँदी बेचकर किसी प्रकार घरका निर्वाह करनेके लिए बाध्य होना पड़ा। पिताजीकी इस स्थितिका पू० बड़े वर्णीजीको पता लग गया। उस समय पू० बड़े वर्णीजी बरुआसागरमें थे । अतः उन्होंने श्री बाबू रामस्वरूपजीसे कहकर छ: सौ रुपये सहायताके लिए भिजवा दिये। उस समयकी स्थितिको देखते हुए, छः सौ रुपये एक वर्षका वेतन होता है। इन रुपयोंसे पिताजीको स्वास्थ्य लाभ करने में आसानी अभी वे स्वास्थ्य लाभ कर ही रहे थे कि उसी समय सन् १९४५ में अमरावतीसे श्रीमान् सिंघई पन्नालालजी पिताजीके घर आ गये। पिताजीने उनकी पूरी सेवा की। कलकत्तामें भगवान महावीरकी वीर शासन जयन्तीके समारम्भका आयोजन हुआ था। स्व० सर सेठ हुकुमचन्दजी उसके अध्यक्ष चुने गये थे । उसमें सम्मिलित होनेके लिए सभी विद्वानोंके साथ पिताजी भी कलकत्ता गये। वहाँ ३-४ दिन तक उत्सव चलता रहा। उसमें देश-विदेशके अनेक विद्वान् सम्मिलित हुए थे। श्रीमान सिंघई पन्नालालजी भी साथ गये थे कि उसी बीच वहाँसे वे अकस्मात् चले आये । बादमें मालूम हुआ कि वे आराकी अस्पतालमें काफी समय तक पड़े रहे और वहीं उनका स्वर्गवास हो गया । यह मालूम पड़ने पर पिताजीने उनके घरवालोंको सूचना दे दी। अधिवेशनके समय ही विद्वत् परिषद्की स्थापना की गई तथा पिताजी इसके संयुक्त मंत्री बनाये गये। विद्वत् परिषद्का कार्यालय पिताजीके ही जिम्मे था। इस कार्यको पिताजीने मनोयोग पूर्वक आगे बढ़ाया। उसके फलस्वरूप कटनीमें विद्वत परिषदका प्रथम अधिवेशन हआ जिसके अध्यक्ष पू० बड़े वर्णीजी बने । पिताजी के मन्त्रित्व कालमें ही मथुरामें शिक्षण शिविरका आयोजन किया गया जो पर्याप्त सफल रहा। इन्हीं दिनों एक घटना और हई। स्याद्वाद विद्यालय ने अपनी समाजके बहतसे लडकोंको निष्कासित कर दिया। उनकी स्थितिको देखकर स्व० श्री पं० पन्नालालजी धर्मालंकार, स्व० श्री पं० महेन्द्रकुमारजी न्यायाचार्य और पिताजीने एक भवन किराये पर लेकर उसमें छात्रावासकी स्थापना कर दी । पिताजी उसके संयुक्त मन्त्री बनाये गये थे। उसमें प्रविष्ट छात्रोंको संभव सुविधाएँ भी प्रदान की। बादमें सेठ श्री . जोखीराम बैजनाथजीने एक पुराना छात्रावास तथा उससे लगी हई जमीन खरीद कर छात्रावासको सौंप दी। श्री मौजीलालजीके विशेष प्रयत्नसे यह कार्य सम्पन्न हुआ। इसके कुछ समय बाद राजस्थानके एक नगरमें पंचकल्याणक संपन्न हुआ था । वहाँ पर स्व० सर सेठ हुकुमचंदजी, स्व० सेठ बैजनाथजी और स्व० श्री पं० देवकीनन्दनजी भी पहुँचे थे । सुअवसर जानकर स्व. श्री पं० पन्नालालजी और पिताजी वहाँ गये और सर सेठ सा० के सामने यह प्रस्ताव रखा कि "आपने विश्वविद्यालय में एक जैन मन्दिर बनाने के लिए रु० ५००००) स्वीकार किये थे। किन्तु वहाँ पर पथक जैन मन्दिर बननेकी स्वीकृति न मिलनेके कारण वह रुपया आपके पास ही है। अब विश्वविद्यालयके पास हो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy