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________________ ६२८ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ चारित्र हैं, मिथ्याचारित्र नहीं, इसका स्पष्टीकरण उस चारित्रको “सम्यक्त्वाचरण" नाम देकर कर दिया है। "षट्खण्डागम" की धवला टीका खण्ड १ भाग ९ पुस्तक ६ के २२ वें सूत्र की टीकामें आचार्य वीरसेनने यह स्पष्ट किया है। वहाँ चारित्रका लक्षण पापनिवृत्ति क्रिया है और पापोंकी गणनामें मिथ्यात्वको सर्वप्रथम गिनाया है। इससे सम्यग्दृष्टिके तीनों हैं। पण्डित राजमलजीका कथन स्पष्ट आगमोनुमोदित है । उक्त ग्रन्थके शब्द इस प्रकार है : "पापक्रियानिवृत्तिश्चारित्रम् ।" घादि कम्माणि पापं । नेसि किरिया मिच्छत्तासंजमकषायाः । तेसिमभावो चारित्रम् । अर्थात् पापक्रियाकी निवृत्ति चारित्र है । घाति कर्म पाप है। उनकी क्रिया मिथ्यात्व-असंजम-कषाय स्पष्ट है कि मिथ्यात्व पापके अभावमें सम्यक्त्वाचरण चारित्र होता है। अतः सम्यग्दृष्टिके तीनों हैं, अतः वह मोक्षमार्ग है। आचार्य अमतचन्द्र करुणाको भीगकर २३वें कलशमें कहते हैं-कि हे भव्यजीव ! तू कुतूहलवश ही अथवा जैसे बने वैसे मर-पचकर भी एक बार शरीरका मोह छोड़, उसे अपना पड़ोसी तो मान, तुझे उससे पृथक् स्वयंका स्वरूप दर्शन होगा। इस भावको पण्डित राजमलजीके शब्दोंमें पढ़िये । "हे भव्यजीव ! अनादि कालसे जीवद्रव्य शरीरके साथ एक संस्कार रूप होकर चला आ रहा है। इसलिए उसे प्रतिबोधित किया जा रहा है। भो जीव ! जितनी शरीरादि पर्याय हैं वे सब पुद्गल की है तेरी नहीं। इसलिए इन पर्यायोंसे अपनेको भिन्न जान । भिन्न जान कर मुहर्तमात्र ( थोड़े काल ) शरीरसे भिन्न अपने शुद्ध चेतन द्रव्यका प्रत्यक्ष रूपसे आस्वाद ले ।""""कैसा भी करके किसी भी उपायसे मरकर भी शुद्ध जीव स्वरूपका अनुभव करो । चैतन्यका अनुभव से सहज साध्य है।" जिस काल जीवको स्वानुभव होता है उसी काल मिथ्यात्व परिणमनका अभाव होता है, जिस काल मिथ्यात्व परिणामका अभाव होता है, उस काल अवश्य अनुमान शक्ति प्रकट होती है । कुछ और भी यत्र-तत्र पण्डितजीने अपने विचार प्रकट किये हैं जो निम्नभांति है१. परद्रव्यकी अभिलाषा ही मिथ्यात्वरूप परिणाम है । (कलश १६७ टीका) २. चारगतिरूपपर्याय तथा पंचेन्द्रियोंके भोग समस्त आकुलता रूप है सम्यग्दृष्टि ऐसा ही अनुभव करता है । साता-असाता दोनों की सामग्री सम्यग्दृष्टिको अनिष्ट रूप ही है । (कलश १५२ की टीका) ३. रागादिपरिणामोंका का मिथ्यादृष्टि जीव है; सम्यग्दृष्टि जीव नहीं। वह उनको निजपरिणाम नहीं मानता, अतः स्वामित्व नहीं । ( कलश १७०) ४. जो द्रव्य जिसका कर्ता होता है, वही उसका भोक्ता होता है, अतः रागादिके कर्तृत्वके कारण मिथ्यादृष्टि ही उसके फलका भोक्ता होता है । कर्तृत्व-भोक्तृत्वका अन्योन्य सम्बन्ध है। ५. इस संसारमें भ्रमण करते हुए किसी भव्य जीवका निकट संसार आ जाता है, तब जीव सम्यक्त्व का ग्रहण करता है ( कलश १२) इस प्रकार ग्रंथके रहस्यका यत्र-तत्र पण्डितजीने उद्घाटन किया है। श्री पण्डित फूलचन्द्रजी शास्त्रीने अपनी भाषामें उसका स्पष्टीकरण किया है । टीका स्वाध्यायप्रेमियोंके लिए अवश्य पठनीय है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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