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________________ ६२६ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ कहा जाता है कि आचार्य कुन्दकुन्ददेव विदेह क्षेत्र स्थित वर्तमान प्रथम तीर्थकर सीमंधर स्वामीके समवसरणमें गए थे। उन्हें चारणऋद्धि प्राप्त थी । सीमंधर तीर्थकरके मुखसे समवशरणमें साक्षात् उपदेश श्रवण करनेवाले इस युगके वे ही आचार्य हुए, शेष जो गुरु परम्परासे आगत आगमके अभ्यासी हुए । कुन्दकुन्द देव द्वारा रचित ग्रन्थों में जो विषय वर्णित है, उससे ऐसा लगता है कि जैनधर्मका सर्वस्व सार उसमें है। "मोक्षमार्ग स्वाश्रयसे हैं पराश्रयसे नहीं । कितना साफ सिद्धान्त है। पर छूटना ही तो मुक्ति है, तब वह परके आश्रयसे कैसे होगी? परकर्तृत्वका सर्वथा निषेध जिनशासनमें है । यह पर-कर्तृत्वका निषेध केवल जीव के लिए ही नहीं, षडद्रव्योंमें से कोई वस्तु परके कारण नहीं परणमती । परिणमन वस्तुका ही स्वभाव है । जो स्वभाव होता है, वह पर की अपेक्षासे नहीं होता, स्वयं स्वका भाव है।" आचार्य कुन्दकुन्दके समयसारपर पूज्य श्री १०८ आचार्य अमृतचन्द्रजीकी आत्मख्याति नामक संस्कृत टीका है, जिसकी संस्कृत भाषा बड़ी ही प्राञ्जल है, उत्कृष्ट कोटिकी है। फिर भी सरल और सरस है । इस ग्रन्थकी टीकाने कुन्दकुन्दका हृदय ही खोल दिया है । ऐसा लगता है मानों कुन्दकुन्दके हृदयमें ही अमृतचन्द्रका वास रहा हो । अमृतचन्द्र आचार्यकी आत्मख्याति संस्कृत टीकामें उनके द्वारा ही रचित अमृतमय घटकी तरह कलश रूप काव्य हैं. जिनमें उन गाथाओंका या उनकी टीकाका हार्द भर दिया गया है । इन कलशोंके ऊपर खण्डान्वय रूपसे प्रत्येक पदका अर्थ खुलासा करते हुए टीका श्री पं० राजमलजीने लिखी है। ये कविराज सुप्रसिद्ध अध्यात्म वेत्ता पं० बनारसीदासजीके पहिले हो गए हैं। कविवर बनारसीदासजीने इसके अध्ययनके पश्चात् स्वयं "नाटक समयसार" की उत्कृष्ट छन्दबद्ध रचनाकी है । पं० राजमलजी राजस्थानके थे। अतः राजस्थानान्तर्गत ढूंढ़ा दृढ़ प्रदेशमें प्रचलित ढूँढारी हिन्दी भाषामें उन्होंने यह टीका लिखी है। ___ यद्यपि ठेठ ( आधुनिक हिन्दी ) में भी इसकी टीकाएँ हुई हैं । तथापि ये सब इस टीकाके पश्चात् हुई हैं। फलतः सभी अन्य टीकाकारोंके लिए पण्डित राजालजीकी टीका प्रकाश स्तंभ रही है । दण्डान्वयी टीकाआमें कर्ता-कर्म-क्रिया इस क्रमसे रखे जाते है कि वाक्य विन्यास ठीक-ठीक हो जाय, पर खण्डान्वयी टीकामें प्रत्येक पदका अर्थ इस क्रमसे नहीं होता । यह क्रियासे प्रारम्भ होती हैं और प्रश्नपूर्वक पदस्थ विशेषणोंका अर्थ खुलता जाता है। पण्डित राजमलजीने इस पराधीनताको भी स्वीकार नहीं किया कि सर्वत्र खण्डान्वयके नियमोंका ही पालन किया जाय, किन्तु जहाँ जिस पदका या वाक्यका अधिक स्पष्टीकरण करना अभीष्ट है, वहाँ भावार्थके साथ-साथ टीकाको गति दी है। टीकाके अन्तमें भावार्थ भी प्रायः लिखा गया है और उसमें भावका पूरा स्पष्टीकरण कर दिया है। यह दिगम्बर जैन स्वाध्याय मंदिर ट्रस्ट सोनगढ़ ( सौराष्ट्र) से प्रकाशित हुई है । इस टीकाके सम्पादक समाजके सुप्रसिद्ध निष्णात् विद्वान् आगप ग्रन्थोंके टीकाकार पण्डित फूलचन्द्र जी शास्त्री, वाराणसी हैं। भाषा टीकाकार पण्डित राजमलजीकी स्वयंकी भाषाको अक्षुण्ण रखते हुए भी पण्डितजीने यत्र तत्र आधुनिक हिन्दीमें भी भाव स्पष्ट किया है, जिससे ढूँढारी भाषाकी दुरूहता भी दूर हो गई है। पं० राजमलजी १७वीं शतीके विद्वान थे । इसी १७वीं शतीमें पण्डित बनारसीदासजी, पं० रूपचन्दजी, पं० चतुर्भुजजी, भैयाभगवतीदासजी आदि अनेक गण्यमान्य अध्यात्मरसिक विद्वान् हुए । पण्डित राजमलजीकी अनेक रचनाएं हैं, उनमें यह रचना प्रमुख है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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