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________________ पंचम खण्ड : ६२१ अध्यायमें जीव और कर्मके अस्तित्वकी सिद्धि करते हुए ग्रन्थकारने अमूर्त जीव का मूर्त कर्मसे सम्बन्ध अनादि बताते हुए वैभाविक शक्तिका उल्लेख विशेष रूपसे किया है । जैसे जल स्वभावसे ठण्डा होता है पर अग्निका निमित्त पाकर वह गर्म हो जाता है वैसे ही वैभाविकी शक्ति का विशेष निमित्त निरपेक्ष परिणमन सिद्ध अवस्था है, पर कर्मके निमित्तसे उसका संसार अवस्था रूप विभाव परिणमन हो रहा है। इस प्रकार वैभाविक शक्तिके सदैव परिणमन करते रहने से एक विभाव परिणमन, जो कर्मके निमित्तसे होता है, दूसरा स्वभाव परिणमन जो विशेष निमित्त निरपेक्ष होता है । बंधका भी, जो संयोग विशेष है, सुन्दर लक्षण किया है। बंध जीव पुद्गलकी पर गुणाकार अर्थात् परतन्त्र होने रूप क्रिया अर्थात् स्वभाव च्युति या अशुद्धताका नाम है । ग्रन्थ सम्पादकजीने यहाँ पर गुणाकार या स्वभाव च्युतिको जीव पुद्गलके बन्धमें परस्पर निमित्त होना बताया है। इसी प्रकार उक्त वैभाविक शक्तिके सम्बन्धमें भी जीवके अपने उपादानकी योग्यतानुसार कार्य होना बताया है । ऐसे बहुतसे स्थल है जहाँ ग्रन्थकारके शब्दोंका स्पष्टीकरण करते हुए संपादकजी अपने पाठकोंको विषयका हार्द समझाते रहे हैं । चेतनाके कर्म फल, कर्म और ज्ञान चेतना ये तीन भेद कहे हैं । इनमें प्रथम एकेन्द्रियमें असंज्ञी पंचेन्द्री तक होते हैं, दूसरी संज्ञी पंचेन्द्र मिथ्यादृष्टि से बारहवें गुणस्थान तक होती है । तीसरी मुख्यतः केवली और सिद्ध जीवकी होती है । गौण रूपसे ज्ञान चेतना स्वरूपाचरण चारित्र के समान चौथे गुणस्थानसे प्रारंभ होकर तेरहवें गुणस्थान तक क्रमसे बढ़ती जाती है । सम्यक्दर्शनके प्रगट हो जाने पर सम्यक्ज्ञानकी विशेष अवस्थामें आत्मोपलब्धि होती है वह ज्ञान चेतना है । स्वानुभूति चौथे गुणस्थान में सम्यक्दर्शनके होने पर होती है । पंचाध्यायीके अनुसार दर्शन मोहके उपशमकादि होनेपर सम्यक दृष्टिको अपने आत्माका जो शुद्ध रूप होता है उसमें चारित्र मोह बाधक नहीं है । यह स्वानुभूति ज्ञान विशेष है । जो सम्यक्दर्शनके साथ रहती है । स्वानुभूतिकी सम्यक्त्वके साथ लब्धिरूपसे समव्याप्ति होते हुए भी स्वानुभूतिकी उपयोगात्मक दशाके साथ सम्यक्त्वकी विषम व्यापित बनती है । क्योंकि स्वानुभूति उपयोग में निरंतर नहीं रहती । पंचाध्यायी कार्यकी इस शुद्धात्मानुभूतिको आचार्य ज्ञानसागर जी ने एक आगमिक आत्मोपलब्धि २ मानसिक आत्मोपलब्धि ३. केवल आत्मोपलब्धि इनमेंसे आगमिक आत्मोपलब्धि माना है, जहाँ शुद्धात्माके विषयका श्रद्धान होता है, पर तदनुकूल आचरण नहीं रहता । इस ग्रन्थ में शंकाके सात सम्यक्त्वके प्रशम, संवेग, अनुकम्पा, आस्तिक्य गुण हैं यथा विस्तृत रूपसे निःशंकित आदि आठ अंग, भय तीन मूढ़ता, आचार्य, उपाध्याय व साधुके स्वरूप व उनकी चर्या तथा गृहस्थ धर्मकी विवेचना करते हुए पाँच भावों में औदयिक आदिका निरूपण किया है । वात्सल्य अंगके प्रथममें लिखा है कि जिनायतन और चतुः संघ में से किसी पर घोर उपसर्ग आने पर सम्यकदृष्टि उसे दूर करने हेतु सदा तैयार रहता है यदि आत्मिक सामर्थ्य नहीं है तो अपने पास मंत्र, तलवार और धन है तब तक उन पर उसकी आई बाधाको न देख सकता है और न सुन सकता है। गृहस्थकी यह विरोधी हिंसा अपरिहार्य है, जो आक्रमणका नहीं वरन् रक्षाका उपाय है। कुछ वेदके कथनमें ग्रन्थकारने मनुष्योंके एक ही भवमें एक भाव वेदके परिर्वतनका उल्लेख किया है । जब कि भाववेद एक भवमें जीवन भर एक रहता है। हाँ द्रव्य भेदमें परिवर्तन हो जाता है । श्री पंडित मक्खनलालजी या पंचाध्यायीकारको संभवतः धवलाटीकाके स्वाध्यायका अवसर नहीं मिला होगा । क्योंकि पंडितजीने इस ग्रन्थके संपादकका उक्त वेद विषयक मन्तव्यका खंडन किया है। इस प्रकार प्रस्तुत पंचाध्यायी ग्रन्थ एक महत्वपूर्ण ग्रन्थ है । इसकी अनेक विशेषतायें | द्रव्यानुयोग और चरणानुयोग प्रधान यह ग्रन्थ है । विद्वान् संपादक महोदयने इसका सुन्दर संपादन कर इसे स्वाध्यायोपयोगी बना दिया है । वर्तमान में यह तृतीय प्रकाशन भी समाप्त हो चुका है । चतुर्थ प्रकाशन मुद्रित हो रहा है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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