SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 653
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६१४ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ प्रकारका है-मूलप्रकृति अनुभाग बन्ध और उत्तरप्रकृति अनुभाग बन्ध । मूल प्रकृतियाँ आठ है । बन्धके समय इनमें फल-दानकी शक्ति उत्पन्न होती है उसे मूलप्रकृति अनुभागबन्ध कहते हैं। इसी प्रकारसे उत्तर प्रकृतियोंमें जो अनुभाग पड़ता है उसे उत्तरप्रकृति अनुभागबन्ध कहते हैं । प्रत्येक समयमें जो कर्म बँधता है उसका विभाग दो होता है-स्थितिकी अपेक्षा और अनभागकी अपेक्षा। प्रत्येक समयमें, आबाधा कालको छोड़कर, स्थिति कालसे लेकर जो कर्म-पुंज प्राप्त होता है उसे स्थितिकी अपेक्षा निषेक कहा जाता है। प्रत्येक समयमें वह अपनी स्थितिके अनुसार विभाजित हो जाता है। केवल आबाधाके कालमें निषेक-रचना नहीं होती। अनुभागकी अपेक्षा जघन्य अनुभाग वाले कर्म-परमाणुओंकी प्रथम वर्गणा होती है। उसके प्रत्येक परमाणुको वर्ग कहते हैं। क्रम-वृद्धि रूप फल-दानकी शक्तिको लिए हुए अन्तर रहित वर्गणाएँ जहाँ तक उपलब्ध होती है उसको स्पर्धक कहते हैं । स्पर्धक देशघाती और सर्वघातीके भेदसे दो प्रकारके होते हैं । इन दोनों प्रकारके स्पर्धकोंकी स्थिति निषेक-रचनाके प्रारम्भसे लेकर अन्त तक बनी रहती है। इन स्पर्धकोंमें मुख्य अन्तर यह है कि देशघाती स्पर्धक आठों कर्मोके होते हैं, किन्तु सर्वघाती स्पर्धक केवल चार घातिकर्मोके ही होते हैं। एक वर्गमें अनन्तानन्त अविभागी प्रतिच्छेद परिलक्षित होते हैं। वर्ग परस्पर मिलकर एक वर्गणाका निर्माण करते है। इस प्रकार अनन्तानन्त वर्गणाएँ मिलकर एक स्पर्धककी रचना करती है। इस तरहसे इस प्रकरणका विस्तारके साथ विवेचन किया गया है । संक्षेपमें, निम्नलिखित प्रकरण इस एक पुस्तकमें समाविष्ट हैं-१. निषेक-प्ररूपणा, २. स्पर्धक प्ररूपणा, ३. संज्ञा, ४. सर्व-नोसर्व बन्ध, ५. उत्कृष्ट अनत्कृष्ट बन्ध, ६. जघन्य-अजघन्य बन्ध, ७. सादि-अनादि-ध्रवअध्रुव बन्ध, ८. स्वामित्व बन्ध, ९. भुजगार बन्ध, १०. पद-निक्षेप, ११. वृद्धि, १२. अध्यवसानसमुदाहार, १३. जीवसमुदाहार। इसी प्रकार चौथी पुस्तकमें स्थितिविभक्ति अधिकार है। स्थिति दो प्रकारकी कही गई है-बन्धके समय प्राप्त होनेवाली और संक्रमण, स्थितिकाण्डकघात, अधः स्थिति गलन होकर प्राप्त होनेवाली स्थिति । इन सभी भेदोंका अनुयोगद्वारसे सविशद विवेचन किया गया है। अनुयोगद्वार इस प्रकार है-अद्धाच्छेद, सर्वविभक्ति, नोसर्वविभक्ति, उत्कृष्टविभक्ति, अनुत्कृष्टविभक्ति, जघन्यविभक्ति, अजघन्शदविभक्ति, सादिविभक्ति, अनादिविभक्ति, ध्रुवविभक्ति, अध्रुवविभक्ति, एक जीवकी अपेक्षा स्वामित्व, काल, अन्तर, नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय, परिमाण, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, सन्निकर्ष, भाव और अल्पबहुत्व । यद्यपि मूल प्रकृति की स्थितिविभक्ति एक है, उनमें अनुयोगद्वार सम्भव नहीं हैं; परन्तु उत्तरप्रकृतियोंकी अपेक्षा असंख्यात भेद हैं। कोई भी कर्म हो वह अपनी स्थितिके सब समयोंमें विभाजित हो जाता है। केवल बन्ध-समयसे लेकर प्रारम्भके कुछ समय ऐसे होते हैं जिनमें वह कर्मरूपको प्राप्त नहीं होता, उन समयोंको ही आबाधाकाल कहते हैं । उदाहरणके लिए, मोहनीय कर्मका सत्तर कोड़ाकोड़ी सागरप्रमाण स्थित-बन्ध होने पर बन्ध-सम सात हजार वर्ष तक सभी समय खाली रहते हैं । पश्चात् प्रथम समयके बटवारेमें जो भाग आता है वह सबसे बड़ा होता है, अनन्तर हीन-हीन होता जाता है । मोहनीयकी जो उत्कृष्टस्थिति सत्तर कोड़ा-कोड़ी सागर कही गई है वह अन्तिम समयके बटवारेमें प्राप्त होनेवाले द्रव्यकी अपेक्षासे कही गई है। मोहनीयकी उत्तर प्रकृतियों की अपेक्षा मिथ्यात्वका उत्कृष्ट अद्धाच्छेद मोहनीय सामान्यके समान सत्तर कोडाकोड़ी सागर है। तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका उत्कृष्ट अद्धाच्छेद अन्तर्मुहुर्त कम सत्तर कोडाकोड़ी सागर है, क्योंकि ये दोनों बन्ध प्रकृतियाँ न होकर संक्रम प्रकृतियाँ हैं । इसलिए जिस जीवने मिथ्यात्वका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध करके उसका काण्डकघात किये बिना अन्तर्मुहर्त कालके भीतर वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त किया है, उसके वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त करनेके प्रथम समयमें अन्तर्मुहूर्त कम मिथ्यात्वके सब निषेकोंका कुछ द्रव्य संक्रमणके नियमानुसार सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व रूपसे संक्रमित हो जाता है। इसलिए इन दो प्रकृतियोंका उत्कृष्ट अद्धाच्छेद अन्तर्महर्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy