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________________ ५२ सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्य इसी बीच अमरावतीमें स्व० श्री डॉ० हीरालालजीने एक पत्र द्वारा पिताजीको धवला ( षट्संडागम ) के सम्पादन में सहयोग करनेके लिये आमंत्रित किया। स्व० श्री पं० हीरालालजी शास्त्री वहाँ पहले ही पहुँच चुके थे और उन्होंने सत्प्ररूपणा प्रथम पुस्तक का अनुवाद कर भी लिया था परन्तु उनके मुद्रणकी स्वीकृति धवला प्रबन्ध समिति नहीं दे रही थी इसलिए पिताजीको वहाँ बुलाया गया था। पिताजी के वहाँ पहुँचने पर स्व० डा० हीरालालजीने कहा कि "श्री पं० हीरालालजीने यह अनुवाद किया है। इसमें आप जो भी संशोधन करना चाहें या पुनः अनुवाद करना चाहें इसके लिये आप स्वतन्त्र हैं ।" पिताजीने उसको ख्याल में रखकर दूसरी प्रेस कापी तैयार की। पिताजीको यह तो मालूम ही था कि धवला समिति इसके मुद्रणकी स्वीकृति नहीं दे रही है। इस लिए पिताजीने डॉ० सा० के सामने एक प्रस्ताव रखा कि यदि वे स्वीकार करें तो पिताजी इस अनुवादको लेकर स्व० श्री पू० पं० देवकीनन्दनजीको कारंजा दिखा लाया करें। उनकी इसमें अनुमति मिलने पर पिताजी १०-१५ दिनमें कारंजा जाने लगे तथा मूल व अनुवाद पढ़कर उन्हें सुनाने लगे। फल यह हुआ कि अन्तमें उसके मुद्रणकी स्वीकृति मिल गई और इस प्रकार एक वर्षके भीतर पट्संदागम (धवला) की प्रथम पुस्तकका प्रकाशन हो गया । यह क्रम दूसरी, तीसरी व चौथी पुस्तक के मुद्रण तक चलता रहा। किन्तु स्व० श्री पं० हीरालालजी तथा पिताजी में अनबनकी स्थिति बने रहने के कारण पिताजी अमरावती छोड़कर बीना चले आये । उसी समय पिताजी के प्रथम बालकका स्वर्गवास भी हो गया था। बीना चले आनेका वह भी एक कारण था । उसी समय देवगढ़ में गजरथ होनेवाला था तथा श्री गजाधरजीके दस्साओंके यहाँ विवाह करनेके कारण समाजमें हलचल उत्पन्न हो गयी थी। इसलिए पिताजीने इन दोनों बातोंकी ओर विशेष ध्यान देकर उन्हें आन्दोलनों का रूप प्रदान कर दिया | पिताजीका दस्साओंको मंदिरमें पूरी सुविधा दी जाये यह आन्दोलन तो पहलेसे ही चल रहा था कि इसी बीच बामौराके गजाधर नामक एक युवकने दस्साओंके यहाँ शादी कर ली। इस कारण समाजके द्वारा उसका मंदिर बन्द करने पर खुरईमें दोनों पक्षोंमें मुकदमा चलने लगा। पिताजी दस्सा पूजाधिकारके पक्षधर तो थे हो, इसलिए उन्होंने उसके मुकद्दमे में दिलचस्पी ली और गजाधरकी ओरसे गवाही देने खुरई भी गये । वहाँ पिताजीके बड़े साले श्री मुन्नालालजी वैधने पिताजीको भोजन के लिये आमंत्रित किया। खुरईकी समाजने पिताजीको भोजन करानेसे वैद्यजीकी रोक दिया । फलस्वरूप पिताजी भोजन करनेके लिये दस्साओं के यहाँ गये । इसके बाद यह आन्दोलन फिर भी चालू रहा। कुछ समय बाद कुरवाईमें परवार सभाका अधिवेशन होने वाला था कि इसी बीच पूज्य पं० देवकीनन्दनजी बीना आये और स्व० श्री सिंघई श्रीनन्दनलालजी के यहाँ भोजन करके चले गये। किन्तु यह कहते गये कि यदि फूलचन्द्र (पिताजी ) कुरवाई अधिवेशनमें आयेंगे तो मैं नहीं आऊंगा । परन्तु किसी कार्यवश पिताजीको इन्दौर जाना पड़ा। वहाँपर पिताजी स्व० श्री पं० देवकीनन्दनजी के यहाँ ही ठहरे | पंडितजीने पिताजीको कुरवाई चलने का आग्रह किया । यह सुनकर पिताजी बिगड़ पड़े और बोले, 'बीना में तो आप कुछ और कह आये हैं और यहाँपर चलने का आग्रह करते हैं ।' अन्तमें पंडितजी बोले कि मैंने तुम्हारी दृढ़ता समझ ली है, अतः तुम्हारे साथ सभाको समझौता ही करना पड़ेगा ऐसा दिखाई देता है । इसलिये वे दोनों कुरवाई गये । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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