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________________ ६१० : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ महाबन्धकी सैद्धान्तिक समीक्षा डॉ. देवेन्द्रकुमार शास्त्री, नीमच यह सुनिश्चित है कि भावकी दृष्टिसे जिनवाणी स्वतःसिद्ध, अनादि व अनिधन है। इसका प्रमाण यह है कि आज तक जितने भी तीर्थकर, वीतराग उपदेष्टा हए, उन सभी अनन्त ज्ञानियोंका मत एक है। वे अन्तरंग और बहिरंग दोनोंमें एक है। शब्दके द्वारा जो अर्थ प्रकाशित होता रहा, उसमें किसी भी प्रकारका विरोध व विसंगति नहीं है। सभी ज्ञानियोंका भाव एक ही परिलक्षित होता है। यही जिनागमकी प्रमुख विशेषता है। __ जिनवाणीका मूल आगम है । सम्प्रति जो उपलब्ध है, वह आगम ही है । आगम, सिद्धान्त और प्रवचन इन तीनों शब्दोंका अर्थ एक ही है। आगमके दो भेद कहे गये हैं-अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य । अंगप्रविष्ट बारह प्रकारका है। अंगप्रविष्टके बारह भेदोंको द्वादशांग कहते हैं। द्वादशांगका बारहवाँ भेद दृष्टिवाद है। उसके पाँच भेद हैं-परिकर्म, सूत्र, प्रथमानुयोग, पूर्वगत, चुलिका। इनमेंसे पूर्वगत चौदह प्रकारका है । अतः जिनवाणी ग्यारह अंग चौदह पूर्वके नामसे भी प्रसिद्ध है । चौदह पूर्वोमेंसे दूसरा पूर्व अग्रायणीय है। इसके चौदह अर्थाधिकार है । पाँचवाँ अर्थाधिकार चयनलब्धि है जिसे वेदनाकृत्स्न प्राभूत भी कहते है। इसके चौबीस अर्थाधिकार कहे गये हैं। उनमें से प्रारम्भके छह अर्थाधिकार है-कृति, वेदना, स्पर्श, कर्म, प्रकृति और बन्धन । इन चौबीसोंको अनुयोगद्वार कहा जाता है। अनुयोगद्वारके प्रारम्भिक छह अर्थाधिकारोंको "षट्खण्डागम" में निबद्ध किया गया है। दिव्यध्वनिसे प्रसूत द्वादशांग जिनवाणीके निबन्धक गणधर कहे जाते हैं । गणधरोंको परम्परासे पोषित आगम-परम्पराका संवहन करनेवाले आरातीय तथा सारस्वत आचार्योंने ही आज तक इसकी रचना की है। ग्रन्थ-लेखनकी परम्परा आचार्य पुष्पदन्त और भूतबलिसे प्रारम्भ हुई। उन्होंने द्वादशांग-सूत्रोंका संकलनकर छह खण्डोंमें निबद्ध किया, जिससे ग्रन्थका नाम “षटखण्डागम" प्रसिद्ध हआ। आचार्य वीरसेनने इसे "षटखण्डसिद्धान्त" नामसे अभिहित किया है । इन्द्रनन्दिके 'श्रुतावतार' के अनुसार 'षट्खण्डागभ' का प्रारम्भ आचार्य पुष्पदन्तने किया था । 'धवला' टीकासे भी इसका समर्थन होता है कि सत्प्ररूपणाके सूत्रोंके रचयिता आ० पुष्पदन्त हैं । दूसरे खण्डसे लेकर छठे खण्ड तककी रचना आ० भूतबलिनेकी थी। उन्होंने आचार्य पुष्पदन्त रचित सूत्रों को मिलाकर पाँच खण्डोंके छह हजार सूत्रोंकी रचना की तथा महाबन्ध नामक छठे खण्डके तीस हजार सूत्रोंकी रचना की । इस प्रकार अनुयोगद्वारके अन्तर्गत षट्खण्डागम एवं पाहुड़ों ( प्राभृतों ) की रचना की गई । अकेले अग्रायणी पूर्वके पंचम प्रकरणमें बीस पाहुडोंकी संख्या कही गई है। उनमेंसे चतुर्थ पाहुडका नाम 'कम्मपयडि' (कर्मप्रकृति) है । इस पाहुडके चौबीस अनुयोगद्वार हैं। द्वादशांग तथा चौदह पूर्वोके एकदेश ज्ञाता, परम प्रात स्मरणीय आचार्य धरसेनके प्रमुख शिष्यद्वय आचार्य पुष्पदन्त और भूतबलिने मिलकर जिस महान् अंगभूत 'षट्खण्डागम' की रचना की थी, उसका ही अन्तिम खण्ड 'महाबन्ध' है। इसे 'महाधवल' भी कहते हैं। 'महाधबल' का लाक्षणिक अर्थ है-अत्यन्त विशद । वास्तव में आ० वीरसेन कृत 'धवला' टीकाने 'षट्खण्डागम' के सूत्रोंकी विशद तथा स्पष्ट व्याख्या कर सिद्धान्त रूपी निर्मल जलको सबके लिए सुलभ कर दिया है । यद्यपि अनेक आचार्योंने 'षट्खण्डागम' की टीकाएँ रची, किन्तु जो प्रसिद्धि धवला, जयधवलाकी है, वह अन्य किसीको नहीं मिली। आचार्य गुणधर कृत 'कसायपाहुड' और उसके चूर्णिसूत्रोंकी विशद टीका 'जयश्वला' के नामसे आठ हजार श्लोकप्रमाण आचार्य-वीरसेन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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