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________________ अहिंसाका प्रतीक रक्षाबन्धन रक्षा बन्धन पर्व जिन महामुनि विष्णुकुमारको स्मृतिमें प्रचलित हुआ है वे अकिंचन निष्परिग्रही दिगम्बर साधु थे। उन्हें अपने तपोबलसे जो ऋद्धियाँ प्राप्त हुई थीं उनका भी पता नहीं था, ऐसे थे वे निस्पृह । पर राजा बलिके अत्याचारसे पीड़ित साधुसंघकी रक्षाके लिये जब उनसे प्रार्थनाकी गयी तो वे अपनी सारी साधनाओंका बल लेकर बलिके पास पहुँचे । वामन रूप लेकर उस नरमेघके पुरोधा बलिसे तीन पैर पृथिवीका दान माँगा और अपने व्यापक रूपसे उसे अपने बलित्व-पशुत्वके त्याग करनेको बाध्य किया। सात सौ मनियोंकी जो उस समय नरमेधके कुण्डमें पड़े थे रक्षा हुई। और उन्हें सिमईका मृदु आहार गृहस्थोंने 'रक्षा' का सूत हाथमें बाँध दिया। विष्णुकुमारका हृदय 'आत्मवत् सर्वभूतेषु' की महामैत्री रूपसे व्यापक हो चुका था। वे सत्वमैत्रीके महान् अहिंसक प्रतीक थे। और बलि, स्वार्थका पुतला अहंकारकी मूर्ति हिंसाका क्ररतम पिशाच । जिसने अपने दुर्दान्त अहंकारकी बलिवेदी पर निरीह साधुओंकी बलि देनेका दुःसंकल्प किया था। यह द्वन्द्व अहिंसा और हिंसा, 'उत्कृष्ट स्व' और 'अधम स्व' का था। अन्तमें 'अहिंसा' की विजय हई और उसी अहिंसा रक्षाकी प्रतिज्ञामें बँधनेके लिये रक्षाबन्धन सूत्र बांधा गया जिसकी पुण्य परम्परा आज तक प्रचलित है। यह घटना हस्तिनापुरकी है। आज भी श्रावणीके दिन जैन श्रावक मुनियोंके चित्र अपने रसोई घरमें बनाते हैं और उन्हें सिमई जिमा कर पीछे भोजन करते हैं । एक दिन सिमई जैसे मृदु भोजनकी परम्परा भी उत्तर प्रान्तके जैनोंमें प्रचलित है। हमें इस पर्वकी इस महान् सांस्कृतिक पृष्ठभूमिको समझना चाहिये और अहिंसा पर्वके रूपमें इसे मानना चाहिये । इस रक्षा सूत्रने भाईको बहिनके प्रति कर्त्तव्य और स्नेहका पाठ पढ़ाया। भारतीय इतिहासके आलोकमय पृष्ठोंसे ऐसी अनेकों घटनाएँ अंकित है जिनमें जाति सम्प्रदाय आदि की संकुचित दीवारोंको लाँधकर भी इस रक्षा सूत्रने अहिंसाकी पुण्य धारा प्रवाहितकी है। हममें हरिजनोंके प्रति जो एक प्रकारकी घृणा और पशुसे भी बदतर नीच भावना व्याप्त है उसके सामूहिक प्रायश्चित्तका यह दिन है । हमें इस दिन मिथ्या अहंकारका परित्याग कर मानवताकी उपासना की ओर बढ़नेका शुभ प्रयल करना चाहिये। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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