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________________ चतुर्थ खण्ड : ५८५ हथियाये गये संरक्षण समाप्त हो गये और मानव केवल मानव रहा। जनभाषा हिन्दीको राष्ट्रभाषाका पद मिला। वर्णव्यवस्थाका निकष्टतम घृणित रूप अस्पृश्यता दफना दी गयी और विश्वके प्रत्येक मानवकी स्वतन्त्रताका पुण्यनाद किया गया । हमारी भावना है कि उनका सर्वोदय तीर्थ अपने वास्तविक रूपमें हमारे जीवनमें आवे और उनके धर्मबीजको हम अपने मानसमें अंकुरित, पल्लवित, पुष्पित और फलित करें। हमारा इस अवसर पर भारत सरकार से अनुरोध है कि वह अहिंसाके इस चरम साधकके जन्मदिनकी सार्वजनिक छुट्टी घोषित करके अहिंसक तत्त्वोंको प्रोत्साहित करे । 'संजद' पदका बहिष्कार : सूत्रोच्छेदका दुष्प्रयत्न गजपन्थासे घोषणा हुई है कि ताम्रपत्रोंमें लिपिबद्ध किये गये जीवस्थान सत्प्ररूपणाके ९३वें सूत्रमेंसे 'संजद पद अलग किया जाता है । हेतु यह बतलाया गया है कि इस सूत्र में 'संजद' पदके रहनेसे द्रव्यस्त्रीको मुक्तिका प्रसंग आता है जो कि दिगम्बर परम्पराके विरुद्ध है । पत्रों में प्रकाशित हुई विज्ञप्तिसे ज्ञात होता है कि यह घोषणा पीछी कमण्डलुको आगे रखकर की गयी है और इसमें माया शल्य खुल कर खेली है । जैन परम्परामें इन चिह्नोंका क्या महत्व है यह किसीसे छिपी हुई बात नहीं है । व्यवहारतः जो व्यक्ति इन चिह्नोंको धारण करता है वही आदर्श मान लिया जाता है । उसके प्रति अपनी श्रद्धा व्यक्त करना प्रत्येक जैनका कर्तव्य हो जाता है और इस कर्तव्यका तब तक निर्वाह करना पड़ता है जब तक कि उक्त व्यक्तिमें चारित्र और सम्यक्त्वको कलंकित करनेवाला व्यवहारतः कोई दोष नहीं दिखाई देता है । यह तो प्रसन्नताकी बात है कि इस कालमें ऐसे व्यक्तियोंका सदभाव है और यह भी चाहते हैं कि उनका सद्भाव सदा काल बना रहे, क्योंकि व्यक्तिकी मुक्तिका अन्तिम मार्ग वही है। किन्तु जब हम देखते हैं कि ये व्यक्ति जिस महान उद्देश्यको लेकर इस मार्गके पथिक बनते हैं उस उद्देश्यकी पूर्ति न कर अपने पदके सर्वथा अयोग्य अनधिकार चेष्टा करने लगते हैं तब हमारा मस्तक लज्जावश झुक जाता है। वास्तवमें देखा जाय तो इस विवादमें कोई सार नहीं है। इसके दो कारण हैं। प्रथम तो यह कि ताडपत्रीय प्रतिमें यह पाठ मौजूद है और दूसरा यह कि ९३वें सूत्रमेंसे इस पदके निकाल देने पर षटखण्डागमके मूल सूत्रोंमें विसंगति आ जाती है । संशोधनकी यह विशेषता मानी गयी है कि प्राचीन पाठकी रक्षा की जाय । जब डॉ० हीरालाल जी सोलापुर गये थे तब उन्होंने यही सलाह दी थी। फिर भी इस तथ्यपूर्ण स्थितिकी ओर ध्यान न देकर कुछ भाइयोंने यह सूत्रोच्छेदक अविवेकपूर्ण घोषणा कराई है। साधुके आदेश और उपदेशकी चर्चा जैन ग्रन्थोंमें की गयी है। हर कोई हर किसीको आदेश नहीं दे सकता। आदेश चारित्रके विषयमें व्यक्तिगत कारणोंके उपस्थित होने पर ही दिया जाता है । सो भो व्रती पुरुषोंके लिए ही। किन्तु हम देखते हैं कि यहाँ इस व्यवस्थाको पूरी तरहसे अवहेलनाकी गयी है। यह सोचा जाता है कि आगममें द्रव्यस्त्रीकी योग्यताका विधायक सूत्र वचन होना चाहिये । इसी वृत्तिके परिणामस्वरूप यह अंग-भंगका कार्य किया गया है। जैसा कि षट्खण्डागम और उसको धवला टीकाके सम्यक् अवलोकनसे ज्ञात होता है कि आगममें मात्र भाव मार्गणाओंका हो विचार किया गया है । क्षुल्लक बन्धके मूल सूत्रोंमें १४ मार्गणाओंका विवेचन किया है। यदि इस आगममें आचार्यको द्रव्य मार्गणाओंका विवेचन करना इष्ट होता तो वे वहाँ मात्र भाव मार्गणाओंका ही विवेचन नहीं करते और न ही आचार्य वीरसेन स्वामी मार्गणाओंके स्वरूप निर्देशके प्रसंगसे यह भी कहते कि आगममें भावमार्गणाओंका ही ग्रहण किया गया है, द्रव्य मार्गणाओंका नहीं । एक बात यह भी कही जाती है कि जहाँ भी पर्याप्त शब्दके साथ मनुष्यणी शब्द आया है ७४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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