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________________ हरिजन मन्दिर प्रवेश चर्चा जबसे हरिजन मन्दिर प्रवेश बिल पास हुआ है तभीसे जैन समाजमें 'जैन हिन्दू नहीं हैं' इस बिलगाववादी विचारधाराने जोर पकड़ा है । इसका एक मात्र उद्देश्य है - इस कानूनसे जैन मन्दिरोंको मुक्त कराना । स्थितिपालक भाई तो यहाँ तक लिखनेका साहस करते हैं कि 'भगवान् महावीरकी वर्णव्यवस्थाको घरपतुआ बच्चोंका खेल बना लिया है ।' ये बन्धु जैन संस्कृतिके इस मूल आधारको ही भुला देते हैं कि वैदिक संस्कृति जहाँ जन्मजात वर्णव्यवस्थाको स्वीकार करती है वहाँ जैन संस्कृति केवल इसे व्यवहार मात्र मानती हैं । एक ही पर्यायमें गोत्र बदल जाता है और वर्ण भी । भरतने त्रिवर्णोमेंसे ही जिन्होंने व्रत धारण किये थे, उन्हें ब्राह्मण बनाया था और इसीलिए गोत्र परिवर्तनका कारण सकलसंयम और संयम-संयम आगम ग्रन्थोंमें बताया गया है । नीचगोत्री सकलसंयमी हो सकता है, म्लेच्छ क्षपक श्रेणी चढ़ कर मोक्ष जा सकता है फिर भी ये भाई जन्मजात वर्ण व्यवस्थासे चिपटे हुए हैं । ये भाई शूद्रोंको अस्पृश्य बता कर उन्हें मन्दिरमें भी नहीं आने देना चाहते । हमारे कुछ सुधारक भाई व्यवहार बर्ताव में अस्पृश्यता हटानेका समर्थन करके भी मन्दिर कानूनसे मुक्ति पाने के लिए 'जैन हिन्दू नहीं है' यह नारा लगा रहे हैं । दक्षिण महाराष्ट्र सभाका प्रस्ताव हमारे सामने है | उसने अस्पृश्यता निवारणके बम्बई सरकारके प्रयत्नकी सराहना करके भी हरिजन मन्दिर प्रवेश कानूनसे जैनियों को बरी करनेकी माँग की है । और उसका आधार यह बताया है कि यद्यपि जैन अभी तक प्रायः हिन्दू लासे शासित होते आये हैं पर जिन बातोंमें जैनियोंका विशेष विधि विधान होता है उन बातोंमें जैनोंपर वर्तमान हिन्दू ला भी लागू नहीं होता, वे हिन्दुओंसे पृथक् हैं । जहाँ तक बम्बई सरकारके कानूनका सम्बन्ध है वह हरिजनोंकी अयोग्यता निवारण करने वाला है । कोई भी व्यक्ति मात्र हरिजन होनेके कारण मन्दिर में जानेसे रोका नहीं जा सकता । बम्बई के प्रधान मन्त्रीने स्पष्ट शब्दोंमें कहा है कि यदि आप मुझे मन्दिरमें ले जा सकते हैं तो डॉ० अम्बेडकर को नहीं रोक सकते' इसमें पूजा पाठके सब अधिकार सबको देनेकी बात कहाँ है ? प्रश्न इतना ही है। कि हरिजनोंमें अस्पृश्य होनेके कारण जो अयोग्यता आरोपित कर रखी थी उसे हटा कर उन्हें मानवाधिकार दिये गये हैं । यदि हम कानूनमें हिन्दू शब्दसे जैनको भी लिया है तो भी हमें क्यों आपत्ति है ? जब आज तक हम अनेक बातों में हिन्दूलासे शासित होते आये हैं तब इसमें हिन्दूलासे शासित होनेमें क्या खतरा है जब कि हमारी संस्कृति हमें जन्मना वर्णव्यवस्था और अस्पृश्यताके मूलोच्छेद की शिक्षा देती है । हमारे शास्त्र शूद्रोंको मोक्ष तकका विधान करते हैं । शूद्रोंका क्षुल्लक पदका धारण करना तो कट्टर रूढ़िचुस्त भी स्वीकार करते ही हैं । ऐसी दशामें शूद्रों द्वारा मन्दिरमें देवदर्शन कर लेनेका कानूनी हक भी प्राप्त कर लेनेमें हमें क्यों बाधा है ? यह तो हमारी संस्कृतिका ही प्रचार हुआ । उससे बचनेका द्राविडी प्राणायाम करनेसे क्या लाभ ? नये शासन विधानकी ११वीं धारामें नागरिकता के सामान्य अधिकारोंमें ही अस्पृश्यता निवारणका मौलिक अधिकार दिया गया है । २६ जनवरी सन् १९५० से इस कानून के लागू होनेपर सवर्ण और असवर्ण हिन्दूमें कोई भेद नहीं रह जायगा । हम किसीको हरिजन होनेके कारण अस्पृश्य या नीच नहीं समझ सकेंगे । इस मानवाधिकारको समुज्ज्वल घोषणासे हमें तो मंदिरोंमें घीके दिये जलाने चाहिए कि आज महावीर के शासनकी सच्ची प्रभावना हुई हैं, उनके और समवशरणके प्रतीक ये जिनालय आज जनालय हुए । इसपर छाया हुआ वैदिक धर्मका तमस्तोम आज नष्ट हुआ । पर आज जैन समाजके ये सुधारक बन्धु भी किसी बहानेसे इस सुधारसे छुटक जाना चाहते हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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