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________________ ५६४ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ कि ग्यारह अंगोंकी रचनामें प्रत्येक तीर्थकरके कालमें किसी हद तक परिवर्तन होता आया है । और कर्म शास्त्रका अन्तर्भाव ज्ञानप्रवाद पूर्व और कर्मप्रवाद पूर्वमें होता है, इसलिए कर्मशास्त्र में इस सम्बन्धमें जितना भी कथन किया गया है उससे अंगोंका कथन बाधित हो जाता है। अतः पुरानी वस्तुस्थिति यही समझनी चाहिये कि कर्मशास्त्र में स्त्रीमुक्ति और नपुंसक मुक्तिका जो विधान किया गया है वह भाव वेदकी अपेक्षासे ही किया गया है, द्रव्यवेदकी अपेक्षासे नहीं, क्योंकि चौदह गुणस्थान और चौदह मार्गणाओंकी प्ररूपणा जीवोंके भेद-प्रभेदों को दृष्टिमें रखकर ही की गई है, शरीरके आंगोपांगोंको ध्यान में रखकर नहीं । इसलिए वेद नोकषायोंके उदयसे हुए भाववेदोंको अर्थ आंगोपांग नामकर्मके उदयसे हुए द्रव्यवेद परक करना ठीक नहीं है ऐसा यहाँ समझना चाहिए । इस प्रकार अंगोंके आधारसे द्रव्यस्त्री और द्रव्य नपुंसकका मुक्ति गमन सिद्ध करना तो बनता नहीं । रही कर्मशास्त्र की बात सो कर्मशास्त्र के टीकाकारोंने आंगोपांग नामकर्मके उदयसे हुए द्रव्यस्त्री और द्रव्य नपुंसकके मुक्तिगमनका विधान भले ही किया हो, पर मूल कर्मशास्त्र से इसकी सिद्धि नहीं होती ऐसा यहाँ समझना चाहिये । श्वेताम्बरोंकी ओरसे द्रव्यस्त्रीके मुक्तिगमनके समर्थनमें सवस्त्र मुक्तिको सिद्ध करते हुए एक बात यह कही जाती है कि जैसे दिगम्बर परम्पराके मुनि (श्रमण) के पीछी, कमण्डलु और शास्त्र रखना स्वीकार किया गया है वैसे ही श्वेताम्बर परम्परा यदि इन तीनोंके अतिरिक्त श्रमणके आगमके अनुसार वस्त्र पात्र रखनेका और समर्थन करती हैं तो इससे श्रमणको स्वावलम्बी होना चाहिये ऐसा माननेमें कहाँ बाधा आती है ? यह श्वेताम्बर परम्पराका कथन है पर यहाँ देखना यह है कि जिस प्रकार दिगम्बर परम्पराके आगमने प्रयोजन विशेषको ध्यान में रखकर श्रमणको पीछी, कमण्डलु और शास्त्र रखनेकी अनुमति दी है वैसे श्वेताम्बर परम्परा किस प्रयोजनको ध्यान में रखकर वस्त्र पात्र रखनेकी स्वीकृति दी यह उसे बतलाना चाहिये । वह कहे कि लज्जा के निवारणके लिये श्रमण वस्त्र रखता है और आहार ग्रहण करनेके लिये वह पात्र रखता है । सो उसका यह कहना तो बनता नहीं, क्योंकि श्रमणको यदि स्त्री-पुरुषोंके मध्य नग्न रहनेमें लज्जा का अनुभव होता है तो वह श्रमण कहाँ रहा, वह तो गृहस्थ हो गया । इसी प्रकार यदि श्रमण अपने हाथोंको ही पात्र बनाकर आहार ग्रहण नहीं कर सकता, उसे इसके लिए पात्र रखना आवश्यक हो जाता है तो भी वह गृहस्थ हो जाता है । अतः ये दोनों पीछी, कमण्डलु और शास्त्र के समान संयम और ज्ञानाराधनाके अनिवार्य अंग नहीं है, अतः श्रमणके प्रयोजन विशेषको ध्यानमें रखकर इनका होना आवश्यक नहीं है ऐसा यहाँ समझना चाहिये । इस प्रकार इस पूरे विवेचनसे यही सिद्ध होता है कि महिलाका उसी पर्यायसे मुक्ति लाभ करना उनके आगमसे सिद्ध नहीं होता । यद्यपि यहाँ हमने इस विषयको संक्षिप्त करके लिखा है, पर यदि समय मिला और पूरा साहित्य सामने रहा तो कभी विषयको विस्तारसे लिखेंगे यह हमारा विचार है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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