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________________ द्वितीय खण्ड : ४७ पिताजीसे कहा, 'बाबूजी! बाबूजी! देखिये ये क्या कहते हैं।' लुटेरोंने भी झाँककर छड़ी आदि देखी तो समझा कि कोई अंग्रेज अफसर है, और गाड़ी छोड़कर भाग लिये । उनके सभी साथी तो ललितपुरके अस्पतालमें भर्ती किये गये, किन्तु पिताजी घर पहुँच गये। गर्मीकी छुट्टियां खत्म होनेपर वे पढ़नेके लिए फिर इन्दौरको चले पर रास्तेमें मन उचाट हो गया और भोपालसे ही लौट आये। फिर काफी दिन तक घर पर ही रहे। कुछ दिनों बाद पिताजी, अपने पिताजीके साथ, भैलोनी एक विवाहमें सम्मिलित हए । चूँकि पिताजी इन्दौरसे पढ़कर घर आये थे इसलिए पिताजीको देखनेको सबको उत्सुकता होने पर, उन्हें बुलाया गया। एक बुजुर्गने पिताजीसे पूछा "बेटा, कब आये हौ।" पिताजीके यह उत्तर देने पर कि "अभी तो आया हूँ", व बुजुर्ग सिरसे पीठ तक हाथ फेरते हुए बोले "ओ, बेटा तो तुर्की सीख आऔ ।" यह व्यंग सुनकर पिताजीकी आँखोंमें आँसू भर आये और तभी उन्होंने निश्चय किया कि अपनी भाषा और अपने पहनावेको कभी नहीं भूगे । पिताजीके इस निश्चयकी झलक आज भी उनके जीवनमें देखी जाती है। उसी समय साढ़मलमें स्व० सेठ लखमीचन्द्रजीने छात्रावास सहित एक पाठशाला खोली। एक बार ललितपुर जाते समय सेठजी सिलावनमें घर पर रुके तब उन्होंने पिताजीको नये फैशनके कपड़े पहने घूमते देखा। उन्होंने पूछा कि ये कौन हैं व ज्ञात होने पर, पिताजीको साढ़ मल पाठशालामें पढ़नेके लिए बुला लिया। पिताजीने वहाँ पर मध्यमा तक अध्ययन किया। स्व. पू० पं० घनश्यामदासजी प्रधानाध्यापक थे । वे व्युत्पन्न विद्वान थे। वर्तमानमें जो कुछ पिताजी हैं वह सब उनके परिश्रमका फल है। साढूमलमें जब गांधीजीका १९२० में आन्दोलन चला तो पिताजी उसमें भाग लेने लगे और गाँवके लोगोंको एकत्रित करके व्याख्यान आदि देने लगे। इससे घबड़ाकर कलक्टरकी ओरसे संदेश आया कि यह आंदोलन बन्द हो, अन्यथा पाठशाला बन्द कर दी जायेगी। सेठजी राष्ट्रीय विचारधाराके व्यक्ति थे। बुन्देलखण्डमें उन्हींके सत्प्रयत्नोंसे बेगार प्रथा बन्द हुई थी। अतः उन्होंने पिताजी आदिको बुलाकर कहा कि 'तुम लोग सेवाका कोई दूसरा रास्ता चुन लो। ये तुम्हारे पढ़नेके दिन है, इसलिए इस आन्दोलन में पड़नेसे कोई लाभ नहीं है।" अन्तमें पिताजीने अपने सहयोगियोंसे विचार-विमर्श करके 'मुट्ठी फण्ड' की स्थापना की और अनाज इकट्ठा करके उसे गरीबोंमें वितरित करते रहनेका कार्य चालू किया । वहाँसे फिर वे मुरैना विद्यालयमें पढ़ने चले गये। वहाँ श्री पण्डित जगन्मोहनलालजी शास्त्री व श्री पं. कैलाशचन्द्रजी शास्त्री उनके सहाध्यायी थे। स्व. श्री पण्डित वंशीधर जी न्यायालंकार वहाँ पर कर्मकाण्ड पढ़ाते थे । वे पिताजीकी कुशाग्र बुद्धिसे बहुत प्रभावित हुए। धर्मशास्त्रमें पिताजीकी विशेष रुचि थी, इसीलिए उनकी प्रसिद्धि भी हो गई थी। स्व० श्री पं० बंशीधरजीको सन्तोष हो चला था कि उन्हें ऐसा छात्र मिल गया है जो उनके बाद भी उनकी विद्याको जीवित रखेगा। मुरैना विद्यालयमें ही पू० पं० देवकीनन्दनजी सिद्धान्तशास्त्रीसे पिताजीका परिचय हुआ। पं० जी स्वभावसे ही उदारमना व्यक्ति थे। मुरैनामें ही ऐसा प्रसंग आया कि बुन्देलखण्डके सभी छात्रों व अध्यापकोंने मुरैना विद्यालय छोड़ दिया। मुरैनामें अपनी शिक्षा पूरी करके पिताजी घर लौट आये । उसी समय बुन्देलखण्डमें ही एक शिक्षा संस्था खोली जाये इस विचारसे उपयुक्त स्थानकी खोज होने लगी । इसके लिए जबलपुर उचित दिखाई पड़ा। जबलपुरकी समाजके पास उपयुक्त भवन होनेसे इसके लिए वह तैयार भी हो गई। पू० बड़े वर्णोजीके वहाँ पहुँचने पर एक लाख रुपये का चन्दा भी हो गया। उस समय श्रद्धेय पं० बंशीधरजी न्यायालंकार व श्रद्धेय पं० देवकीनन्दनजी भी उपस्थित थे। श्रुत पंचमी का दिन (संवत् Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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