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________________ चतुर्थ खण्ड : ५५३ यह वर्तमान कालीन अव्यवस्थाका समुचित उत्तर है । इसमें एक ओर जहां आत्माको स्वतंत्रता स्वी. कारकी गई है वहाँ दूसरी ओर जड़ तत्त्वोंकी स्वतन्त्र सत्ताको भी नहीं भुलाया गया है। यह मुकम्मिल स्वतन्त्रताकी पूरी गारंटो हो जाती है । अन्तरंग समस्या है व्यक्तिगत उन्नति और बहिरंग समस्या है परस्पर के सम्बन्ध की । यह दोनोंका सुन्दरतम हल उपस्थित करता है। जैसा कि हम देखते हैं विश्व अनेक तत्त्वोंका समुदाय है । इसमें जड़ चेतन सभी तत्त्व मौजूद हैं । उनके सहयोग और सम्मिश्रणसे ही इसकी निर्बाध गति चल रही है। इसमें क्या जड़ और क्या चेतन एक भी तत्त्व हीं है। सभी अपनी अपनी स्वतन्त्रताका उपभोग कर रहे हैं। ऐसी हालत में यह मानना 'मैं बड़ा हूँ वह छोटा है, यह मेरा भोग्य है मैं उसका भोक्ता हूँ, यह अछूत है मैं छूत हूँ, मैं स्वामी हूँ वह सेवक है, में राजा हूँ वह प्रजा है, मैं राव हूँ वह रंक है' निरा अज्ञान है, अधिकतर ये विकल्प जीवनमें आई हुई कमजोरी के कारण होते हैं। जिन्होंने कमजोरी पर विजय पाई है वे इनसे सदा मुक्त रहते हैं। कमजोरीसे हमारा तात्पर्य राग द्वेष और मोहसे है। विश्वमें जितनी भी समस्याएँ उग्ररूप धारण किये हुए है या जो नई नई समस्याएँ सामने आ रही हैं उनका एकमात्र कारण यह राग, द्वेष और मोह ही तो है । इसीके कारण विश्वको ये दिन देखने पड़ रहे हैं। अध्यात्म-समाजवादका आन्तररूप जितना निर्मल और वस्तुस्पर्शी है उसका बाह्यरूप भी उतना ही मोहक और सब प्रकारकी कल्पित विषमताको दूर करनेवाला है। यह समत्वकी भावनाओंमेंसे प्रसूत होकर जीवनके प्रत्येक क्षेत्रमें अपनी छाप छोड़ता जाता है। यह ऐसी विषमताको जीवनकी चीज नहीं मानता जिसे हम ऊपरसे स्वीकार करते है । उदाहरणार्थ छत-अछूत समस्याको लिया जा सकता है। वैदिक धर्मके प्रभावसे कुछ ऐसा प्रघात पड़ गया है जिससे कुछ भाई छूत और कुछ भाई अछूत माने जाने लगे हैं । जो छूत माने जाते हैं उनके साथ मानवताका व्यवहार किया जाता है, उन्हें बैठनेके लिये उचित स्थान दिया जाता है और मन्दिर आदिमें प्रवेश करनेपर रोका नहीं जाता । किन्तु जो अछूत माने जाते हैं उन्हें न तो अपने पास बैठने दिया जाता है, न मन्दिर में जाने दिया जाता है और न स्पर्श ही किया जाता है। लघुशंकाके बाद हाथ धोनेसे काम चल जाता है पर उनका स्पर्श हो जानेपर सचेल स्नानकी आवश्यकता पड़ती है। कुत्ते बिल्लीके छू जानेपर किसी प्रकारकी बुराई नहीं मानी जाती पर उनके छु जानेपर सारा धर्म कर्म बिगड़ जाता है। वे तियंचोंसे भी बदतर मान लिये गये हैं। यह समस्या देशके सामने हजारों वर्षसे उपस्थित है। इस कारण देशको जो हानि उठानी पड़ी है वह अवर्णनीय है। इस सामाजिक विषमताके परिणामस्वरूप ही देशको अनेक भागोंमें बटना पड़ा है। पंजाब और बंगालका हत्याकाण्ड इसीका परिणाम है फिर भी भारतीयोंकी आँखें नहीं खुल रही है । मानाकि वे जब अशुचि अवस्थामें हों तब उनसे दूर रहना चाहिये पर स्नान करनेके बाद जब वे स्वच्छ कपडे पहिन लेते हैं तब ऐसी कौन सी बाधा रह जाती है जिससे उन्हें स्पर्श नहीं किया जाता? जहाँ तक वैदिक धर्मावलम्बियोंका सवाल है यह बात कुछ-कुछ समझमें भी आती है कि वे अपने ही समाजके एक अंगको अपनेसे जुदा रखें, क्योंकि इस धर्मका मुख्य आधार है सामाजिक विषमता । वे जन्मना वर्णव्यवस्थापर जोर भी इसी कारणसे देते हैं और उच्चत्व तथा नीचत्वका आधार कर्मको मानते हैं । वेद और वेदानुमोदित स्मृति उनका मुख्य धर्मशास्त्र है। इसके अनुसार मनुष्यको अपने-अपने वर्णकी प्राप्ति जन्मसे होती है । वे ब्राह्मणत्व आदि जातिको नित्य मानते हैं इसलिए जिस व्यक्तिसे जिस जातिका समवाय सम्बन्ध हो जाता है वह जीवन भर उसी जातिका बना रहता है। अनेक प्रयत्न करनेपर भी उसकी जाति नहीं बदलती। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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