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________________ चतुर्थ खण्ड : ५३१ किया जाता है वह काल प्रत्यासत्ति वश बाह्य व्याप्तिको लक्ष्यमें रखकर अन्वय-व्यतिरेकके आधार पर ही किया जाता है ऐसा यहाँ समझना चाहिए। उसमें तद्व्यतिरिक्त वस्तुके कार्यका परमार्थ रूप कर्ता, कर्म, करण, सम्प्रदान, अपादान और अधिकरण रूप एक भी कारक धर्म पाया जाता हो ऐसा नहीं है। यही कारण है कि उसमें तद्व्यतिरिक्त वस्तुके कार्यके कर्ता आदि कारण धर्मका आरोप करके उसे व्यवहार हेतु कहा जाता है। इस विवेचनसे यह सुतरां फलित हो जाता है कि किसी एक वस्तुको किसी दूसरे वस्तुके कार्यका प्रेरक निमित्त कहना या उदासीन निमित्त कहना यह सब उपचरित कथन ही है परमार्थ कथन नहीं, यह व्यवहारनयका कर्तव्य है । निश्चय नयका कर्तव्य इस प्रकार है उत्पाद, व्यय और ध्रुव स्वभाव वस्तुको द्रव्य कहते हैं । यह द्रव्यका अव्याप्ति, अतिव्याप्ति और असंभव दोषोंसे रहित आत्मभुत सामान्य लक्षण है। इसके अनुसार प्रत्येक द्रव्य पर्यायों में अपने अन्वय स्वभाव के कारण द्रव्य दृष्टिसे स्वयं अवस्थित और नित्य है तथा व्यतिरक स्वभावके कारण पर्याय दृष्टिसे स्वयं उत्पाद और व्ययको प्राप्त होनेसे अनित्य है। प्रत्येक द्रव्योंको नित्यानित्यात्मक स्वीकार करनेका यही कारण है । यह त्रैकालिक वस्तु व्यवस्था है। इस प्रकार जब इस तथ्यको स्वीकार किया जाता है तब प्रत्येक द्रव्य में प्रति समय उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यकी व्यवस्था स्वयं बनती है यह निश्चित होता है । इसीलिये श्री समयसारमें परिणामी, परिणाम और परिणमन क्रिया इन तीनोंको तात्त्विक रूपसे अभिन्न-एक कह कर बतलाया है कि पर पदार्थ से भिन्न रह कर सदा काल एक ही वस्तु परिणमन करती है, एक ही परिणाम होता है और एककी ही परिणमन क्रिया होती है, क्योंकि ये अनेक होकर भी एक ही वस्तु है-भेद नहीं है । दो द्रब्य एक होकर परिणमन नहीं करते, दो द्रव्योंका एक परिणाम नहीं होता और दो द्रव्योंकी एक परिणमन क्रिया नहीं होती, क्योंकि जो अनेक है वे सदा अनेक ही रहते हैं, वे बदल कर एक नहीं हो जाते । एक परिणामके दो कर्म नहीं होते, एक द्रव्यके दो परिणाम नहीं होते तथा एक द्रव्यकी दो परिणाम क्रिया नहीं होती क्योंकि एक कर्मी भी अनेकरूप नहीं होता । यह वस्तुव्यवस्था है। इसीसे परिणाम स्वभाव वाला होने पर भी प्रत्येक द्रव्यको द्रव्य दृष्टिसे नित्य और अवस्थित स्वीकार किया गया है। प्रत्येक द्रव्य परमार्थसे अपने गुण-पर्यायोंमें ही व्याप्त कर रहता है। वह इस अलंध्य मर्यादाका उल्लंघन त्रिकालमें नहीं कर सकता। प्रत्येक द्रव्यकी अपने परिणामोंके साथ अन्तःव्याप्ति स्वीकार करनेका भी यही कारण है । यह निश्चयनयका वक्तव्य है। इस प्रकार असद्भूत व्यवहारनय और निश्चयनयके वक्तव्यका विचार करनेके बाद अब सद्भूत व्यवहारनयके वक्तव्यका निर्देश करनेके साथ सद्भुत व्यवहारनय और असद्भुत व्यवहारनयके वक्तव्य में परस्पर सामंजस्य किस प्रकार है इसकी मीमांसा करेंगे। यह तो हम पहले ही बतला आये हैं कि प्रत्येक द्रव्य कथंचित् परिणाम स्वभाव है, इसलिए उसमें प्रति समय उत्पाद-व्यय होता रहता है। यहाँ उत्पादका नाम हो कार्यकी उत्पत्ति है और उसके व्ययका नाम ही कार्यका ध्वंस है। यह उत्पाद-व्यय क्रिया प्रत्येक द्रव्यमें प्रतिसमय होती रहती है। उदाहरणार्थ अपने शरीरको ही लीजिए। वह प्रथम समयमें जिस रूपमें उत्पन्न हुआ है दूसरे समयमें उसमें कुछ परिवर्तन होता या नहीं ? यह तो है नहीं कि प्रथम समयमें जिस रूपमें है, दूसरे समयमें भी उसी रूपमें बना रहता है, क्योंकि इसे स्वीकार करने पर शरीरमें बाल, युवा और वृद्ध आदि रूप अवस्थाएँ नहीं बन सकती हैं। इससे विदित होता है कि जिस प्रकार प्रति समय शरीरमें स्थूल-सूक्ष्म परिवर्तन होता है उसी प्रकार सब द्रव्यों उत्पाद-व्यय समझ लेना चाहिए। अब प्रश्न यह है कि प्रत्येक द्रव्यमें जो उत्पाद व्यय रूप कार्य होता है वह केवल बाह्य सामग्रीके मिलनेपर ही होता है या कोई उसका अन्तरंग कारण भी है। इसका कारण केवल बाह्य सामग्री तो हो नहीं सकती Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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