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________________ ५२८: सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-प्रन्थ वह निश्चय सम्यग्दर्शन और निश्चय सम्यग्ज्ञानके साथ विरताविरत गुणस्थानको प्राप्त कर लेता है और यदि उक्त जीव चरणानुयोग परमागम में प्रतिपादित विधिसे अट्ठाईस मूलगुणोंका धारी है तो स्वात्मोन्मुख होने पर वह निश्चय सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानके साथ सातवें गुणस्थानको प्राप्त हो जाता है । मोक्षमार्गमें आरूढ़ होनेका एक मात्र यही मार्ग है, इसके सिवा अन्य मार्ग नहीं है। जो इस विधिसे मोक्षमार्गपर आरूढ़ होता है उसके यथायोग्य निश्चय रत्नत्रयकी प्राप्ति होते समय करणानुयोगके अनुसार तदनुरूप कर्मोंकी उपशमादि क्रिया भी अवश्य होती है। इसी में तीनों अनुयोगोंकी प्ररूपणा की सार्थकता है। कार्य-कारण भावको स्वीकार करनेकी आवश्यकता भी इसीमें है। परमागम ही इसे स्वीकार करता है कि व्यवहार रत्नत्रय पराश्रित भाव है। क्योंकि उसकी प्राप्ति बुद्धिमें परका आलम्बन लेने पर ही होती है। इसमें गृहीत मिथ्यादर्शन-ज्ञान-चारित्रके त्यागपूर्वक परमार्थ स्वरूप-देव-गुरु-शास्त्र और व्रतोंका अवलम्बन लेकर मन, वचन और कर्मकी प्रवृति करना मुख्य है । उक्त सच्चे देवादिकका अपने उपयोगमें अवलम्बन लिए बिना व्यवहार रत्नत्रयकी प्राप्ति हो जाय, यह त्रिकालमें सम्भव नहीं है। इसीलिए परमागममें व्यवहार रत्नत्रयको प्रशस्त रागरूप स्वीकार किया है। बुद्धिपूर्वक ऐसा प्रशस्त राग प्रमत्त संयत गुणस्थान तक पाया जाता है, इसलिए वहीं तक व्यवहार रत्नत्रयकी प्राप्ति, पालन और सम्हालका विकल्प होता है। अपने उक्त प्रकारके विकल्पका अभाव होकर दसवें गणस्थान तक तद्विषयक राग तो पाया जाता है। मन, वचन और कायकी उस रूप प्रवृत्ति नहीं होती। मूलाचार आदि परमागममें प्रारम्भके तीन गुणस्थानोंमें अशुभोपयोग बतलाया है। यद्यपि मिथ्यात्व गुणस्थानोंमें ही किन्हींको अव्रती श्रावकके अनुरूप व्यवहार रत्नत्रयकी प्राप्ति हो जाती है, किन्हीं को व्रती श्रावकके अनुरूप व्यवहार रत्नत्रयकी प्राप्ति हो जाती है और किन्हींको मुनिपदके अनुरूप व्यवहार रत्नत्रयकी प्राप्ति हो जाती है। परन्तु उन्हें निश्चय सम्यग्दर्शनादिकी प्राप्ति न होने के कारण उनके इस व्यवहार धर्मको यथार्थ संज्ञा नहीं प्राप्त होती । कारण कि यह सब करते हए भी उसके जीवन में एक तो किसी न किसी जातिकी लौकिक अभिलाषा बनी रहती है और दूसरे वह उस बाह्य प्रवृत्तिको ही अपना हितकारी मानता रहता है। सोनगढ़ इस बाह्य व्यवहार धर्मको आगम बाह्य मानता हो ऐसा भी नहीं है या निश्चय धर्मकी प्राप्तिके पूर्व व्यवहार धर्मको प्राप्ति होती है, ऐसा न मानता हो ऐसा भी नहीं है या वहाँ इसका उपदेश न होता हो ऐसा भी नहीं है । वस्तुस्थिति यह है कि प्रत्येक अनुयोगके व्याख्यानकी अपनी मर्यादा है। सोनगढ़में उस मर्यादाको ख्यालमें रखकर ही व्याख्यान किया जाता है इतना अवश्य है । उदाहरणार्थ जब चरणानुयोगके अनुसार वहाँ व्याख्यान होता है तब यह स्पष्ट कहा जाता है कि जो कुदेवादिककी भक्ति-पूजन करता है या सात वन करता है और आठ मूलगुणों का पालन नहीं करता है आदि, वह नामका भी जैन नहीं है। वह परम अर्हत वाणीको सुननेका भी पात्र नहीं । सभामें आकर बैठे और सुने यह दूसरी बात है । इस प्रकार वहाँ चरणानुयोगके व्याख्यानकी मर्यादाको ध्यान में रखकर उसका व्याख्यान किया जाता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि जैसे चरणानुयोगके व्याख्यानकी अपनी मर्यादा है वैसे ही द्रव्यानुयोगके व्याख्यानकी भी अपनी मर्यादा है । पराश्रितको छुड़ाकर अपने निजस्वरूप उपयुक्त कराना द्रव्यानुयोगके व्याख्यानका मुख्य प्रयोजन है इसलिए इसके व्याख्यानके समय शुभ और अशुभ सभी प्रकारके रागभावका निषेध किया है। उसमें जिस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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