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________________ जैन समाजको वर्तमान सांस्कृतिक परम्परा' सांस्कृतिक और सामाजिक कार्योंकी दृष्टिसे विद्वानोंका इतिहास गौरवमय है । इस समय विविध भाषाओंमें उत्तरकालवर्ती जो भी जैनसाहित्य उपलब्ध होता है, उसकी रचनामें इनका बहुत बड़ा हाथ | अपने पूर्ववर्ती विद्वानोंका स्मरण करते समय सबसे पहले हमारा ध्यान पण्डितप्रवर आशाघरजीकी ओर जाता है । गृहस्थ होते हुए भी उनके पास मुनि तक शिक्षा लेने के लिए आते थे । उन्होंने धर्मशास्त्र, न्याय और साहित्य आदि अनेक विषयोंपर उच्चकोटिकी मौलिक रचनाएँ कीं । कविवर मेधावी और अपभ्रंश भाषामें विविध विषयोंके रचयिता कविवर रइधू भी गृहस्थ ही थे । आगे चलकर भाषा-साहित्य की दृष्टि से कविवर बनारसीदासजी, भगवतीदासजी, टोडरमल्लजी, दौलतरामजी और जयचन्दजी आदि विद्वानोंने जो कार्य किये हैं, वे स्वर्णाक्षरोंमें अङ्कित करने लायक हैं । वस्तुतः इस समय जैनधर्मका जो भी प्रवाह दिखाई देता है, वह उनकी पुनीत ग्रन्थ रचनाओं और सामाजिक सेवाओंका ही फल है । यदि हम वर्तमान युगका ही विचार करें, तो भी हमें निराश होनेका कोई कारण नहीं दिखाई देता । वर्तमान युगके विद्वानोंकी यह परम्परा पूज्यपाद गुरुवर्य्य पं० गोपालदासजी और पूज्यपाद श्री १०५ गुरुवर्य पं० गणेशप्रसादजी वर्णीसे प्रारम्भ होती है । ये दोनों इस युगके ऐसे प्रकाशमान् नक्षत्र हैं जिनके पुनीत प्रकाशसे धर्म और समाजकी चहुँमुखी उन्नति हुई और हो रही है । हमारी सांस्कृतिक और सामाजिक परम्पराके प्रतीक पूज्य गुरु पं० देवकीनन्दनजी सा० तो आज हमारे बीचमें नहीं हैं, पर ज्ञानवृद्ध पूज्य गुरु पं० वंशीधरजी सा० आदि जो दूसरे विद्वान् प्रत्येक क्षेत्रमें कार्य कर रहे हैं, उनकी सेवाएँ क्या कम हैं ? वस्तुतः इन सब विद्वानोंकी तपश्चर्याका ही यह फल है कि समाज आज प्रत्येक अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितिमें अपनेको खड़ा हुआ पाता है । संगठनको दृढ़ करने के मूलभूत आधार इतना सब होते हुए भी हमें यहाँ एक ऐसे विषयपर गहराईसे विचार करना है जो हमारे सांस्कृतिक और सामाजिक जीवनसे सम्बन्ध रखता है । वह विषय है हमारा संगठन । इसके पहले भी विद्वानोंका एक संगठन था, किन्तु उसके ढीला पड़नेपर विद्वत्परिषद् के रूपमें पुनः सब विद्वानोंने मिलकर यह संगठन बनाया है । इस संगठनको स्थापित हुए भी लगभग ११ वर्ष हो गये हैं । इस बीच इसके द्वारा दो बार शिक्षणशिविर संचालित किये गये हैं-- एक मथुरामें और दूसरा सागरमें । इनसे कुछ विद्वानोंको अपनी योग्यता बढ़ाने में सहायता तो मिली ही । साथ ही एक दूसरेके सम्पर्क में आनेसे हमें एक-दूसरे को समझने और अपनी गुणोन्नति करने में भी सहायता मिली है । शिक्षणशिविर के अतिरिक्त विद्वत्परिषद् ने कुछ और भी उपयोगी कार्य किये हैं जो इसके शुभारम्भको सूचित करनेके लिए पर्याप्त हैं । तथापि हमें इतने मात्र से संतुष्ट नहीं होना चाहिए । किन्तु हमें उन बातों पर भी विचार करना चाहिए जो संगठनको दृढ़ करनेके लिए आवश्यक होती हैं । संगठनको दृढ़ करनेके मुख्य आधार ये हैं - एक दूसरेके हितके लिए कार्य करना, परिचित या अपरिचित अपने किसी साथीपर किसी प्रकारकी आपत्ति आनेपर यथासम्भव योग्य सहायता द्वारा उसके परिहारके लिए प्रयत्नशील होना, योग्यता और निष्ठाके आधारपर सामाजिक कार्यकर्ताके रूपमें प्रत्येक विद्वान्‌को आगे १. श्री भारतवर्षीय दि० जैन विद्वत्परिषद्‌के तत्त्वावधान में द्रोणगिरि ( म०प्र०) में सन् १९५५ में हुए सप्तम अधिवेशन में पं० फुलचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्री, वाराणसी के अध्यक्षीय भाषणका सार प्रस्तुत है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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