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________________ ५१४ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ त्मिक रहस्यको एक प्रकारसे भूलते ही गये और उनके ऊपर नैयायिक कर्मवादका गहरा रंग चढ़ता गया । अजैन लेखकों द्वारा लिखे गये कथा साहित्यको पढ़ जाइये और जैन लेखकों द्वारा लिखे गये कथा साहित्यको पढ़ जाइये पुण्य पापके वर्णन करनेमें दोनोंने कमाल किया है। दोनों ही एक दृष्टिकोणसे विचार करते हैं । अजैन लेखकोंके समान जैन लेखक भी बाह्य आधारोंको लेकर चलते हैं । वे जैन मानन्यता के अनुसार कर्मो वर्गीकरण और उनके अवान्तर भेदोंको सर्वथा भूलते गये । जैन दर्शन में यद्यपि कर्मोंके पुण्य कर्म और पापकर्म ऐसे भेद मिलते हैं, पर इससे गरीबी पापकर्मका फल है और सम्पत्ति पुण्य कर्मका फल है यह नहीं सिद्ध होता । गरीब होकर भी मनुष्य सुखी देखा जाता है और सम्पत्तिवाला होकरके भी वह दुखी देखा जाता है । पुण्य और पापकी व्याप्ति सुख और दुखसे की जा सकती है, गरीबी अमीरीसे नहीं । इसीसे जैनदर्शनमें सातावेदनीय और असातावेदनीयका फल सुख-दुख बतलाया है, अमीरी गरीबी नहीं । जैन साहित्य में यह दोष बराबर चालू है । इसी दोषके कारण जैन जनताको कर्मकी अप्राकृतिक और अवास्तविक उलझनमें फँसना पड़ा है। जब वे कथा ग्रन्थोंमें और सुभाषितोंमें यह पढ़ते हैं कि 'पुरुषका' भाग जागने पर घर बैठे ही रत्न मिल जाते हैं और भाग्यके अभाव में समुद्र में पैठने पर भी उनकी प्राप्ति होती नहीं ।' 'सर्वत्र 'भाग्य ही फलता है, विद्या और पौरुष कुछ काम नहीं आता । तब वे कर्मके सामने अपना मस्तक टेक देते हैं । वे जैन कर्मवादके आध्यात्मिक रहस्यको सदाके लिये भूल जाते हैं । १. सुभाषितरत्नसन्दोह, पृ० ४७ श्लोक २५७ ॥ २. भाग्यं फलति सर्वत्र न च विद्या न च पौरुषम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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