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________________ ५१२ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ और जो निर्धन है वह भी अपने कर्मानुसार है । कर्म बटवारे में कभी भी पक्षपात नहीं होने देता । गरीब और अमीरका भेद तथा स्वामी और सेवकका भेद मानवकृत नहीं है । अपने-अपने कर्मानुसार ही ये भेद होते हैं । जो जन्म ब्राह्मण है वह ब्राह्मण ही बना रहता है और जो शूद्र है वह शूद्र ही बना रहता है । उनके कर्म ही ऐसे हैं जिससे जो जाति प्राप्त होती है जीवन भर वही बनी रहती है । कर्मवादके स्वीकार करनेमें यह नैयायिकोंकी युक्ति है । वैशेषिकों की युक्ति भी इससे मिलती जुलती है । वे भी नैयायिकोंके समान चेतन और अचेतन गत सब प्रकारकी विषमताका साधारण कारण कर्म मानते हैं । यद्यपि इन्होंने प्रारम्भमें ईश्वरवादपर जोर नहीं दिया। पर परवर्ती कालमें इन्होंने भी उसका अस्तित्व स्वीकार कर लिया है । जैन दर्शनका मन्तव्य --- किन्तु जैनदर्शन में बतलाये गये कर्मवादसे इस मतका समर्थन नहीं होता । वहाँ कर्मवादकी प्राणप्रतिष्ठा मुख्यतया आध्यात्मिक आधारोंपर की गई है । ईश्वरको तो जैनदर्शन मानता ही नहीं। वह निमित्तको स्वीकार करके भी कार्यके आध्यात्मिक विश्लेपर अधिक जोर देता है । नैयायिक- वैशेषिकोंने कार्य कारण भावकी जो रेखा खींची है वह उसे मान्य नहीं । उसका मत है कि पर्यायक्रमसे उत्पन्न होना, नष्ट होना और ध्रुव रहना यह प्रत्येक वस्तुका स्वभाव' है । जितने प्रकारके पदार्थ हैं उन सबमें वह क्रम चालू है । किसी वस्तु में भी इसका व्यतिक्रम नहीं देखा जाता । अनादि कालसे यह क्रम चालू है और अनन्त कालतक चालू रहेगा । इसके मत से जिस काल में वस्तुकी जैसी योग्यता होती है उसीके अनुसार कार्य होता है । जो द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव जिस कार्यके अनुकूल होता है वह उसका निमित्त कहा जाता है । कार्य अपने उपादानसे होता है किन्तु कार्यनिष्पत्ति के समय अन्य वस्तुकी अनुकूलता ही निमित्तताकी प्रयोजक है । निमित्त उपकारी कहा जा सकता है, कर्ता नहीं । इसलिये ईश्वरको स्वीकार करके कार्यमात्र के प्रति उसको निमित्त मानना उचित नहीं है । इसीसे जैन दर्शनने जगत्को अकृत्रिम और अनादि बतलाया है । उक्त कारणसे वह यावत कार्योंमें बुद्धिमानकी आवश्यकता स्वीकार नहीं करता । घटादि कार्य में यदि बुद्धिमान् देखा भी जाता है तो इससे सर्वत्र बुद्धिमानको निमित्त मानना उचित नहीं है ऐसा इसका मत है । यद्यपि जैन दर्शन कर्मको मानता है तो भी वह यावत् कार्योंके प्रति उसे निमित्त नहीं मानता । वह जीवकी विविध अवस्थाएँ शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छ्वास वचन और मन इन्हींके प्रति कर्मको निमित्त कारण मानता है । उसके मतसे अन्य कार्य अपने-अपने कारणोंसे होते हैं । कर्म उनका कारण नहीं | उदाहरणार्थ पुत्रका प्राप्त होना, उसका मर जाना, रोजगारमें नफा नुकसानका होना, दूसरेके द्वारा अपमान या सम्मानका किया जाना, अकस्मात् मकानका गिर पड़ना, फसलका नष्ट हो जाना, ऋतुका अनुकूल प्रतिकूल होना, अकाल या सुकालका पड़ना, रास्ता चलते चलते अपघातका हो जाना, किसीके ऊपर बिजलीका गिरना, अनुकूल व प्रतिकूल विविध प्रकारके संयोगोंका मिलना आदि ऐसे कार्य हैं जिनका कारण कर्म नहीं है । भ्रमसे इन्हें कर्मोंका कार्य समझा जाता है । पुत्रकी प्राप्ति होने पर मनुष्य भ्रमवश उसे अपने शुभ कर्मका कार्य समझता है। और उसके मर जाने पर भ्रमवश उसे अपने अशुभ कर्मका कार्य समझता है। पर क्या पिताके अशुभोदयसे पुत्रकी मृत्यु या पिताके शुभोदयसे पुत्रकी उत्पत्ति सम्भव है ? कभी नहीं । सच तो यह है कि ये इष्टसंयोग या १. उत्पादव्ययभौव्ययुक्तं सत् । तत्त्वार्थसूत्र अध्याय ५ सूत्र ३० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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