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________________ चतुर्थ खण्ड : ५०९ दिया है जो सर्वसिद्धि आदिमें बतलाया गया है। किन्तु शंका समाधानके प्रसंगसे उन्होंने सातावेदनीयको जीवविपाकी और पुद्गलविपाकी उभयरूप सिद्ध करनेका प्रयत्न किया है। इस प्रकरणके वाचनेसे ज्ञात होता है कि वीरसेन स्वामीका यह मत था कि सातावेदनीय और असाता वेदनीयका काम सुख दुखको उत्पन्न करना तथा इनकी सामग्रीको जुटाना दोनों हैं । (२) तत्त्वार्थसूत्र अध्याय २ सूत्र ४ की सर्वार्थसिद्धि टीकामें बाह्य सामग्रीकी प्राप्तिके कारणोंका निर्देश करते हुए लाभादिको उसका कारण बतलाया है। किन्तु सिद्धोंमें अतिप्रसंग देने पर लाभादिके साथ शरीर नामकर्म आदिकी अपेक्षा और लगा दी है। ये दो ऐसे मत है जिनमें बाह्य सामग्रीकी प्राप्तिका क्या कारण है इसका स्पष्ट निर्देश किया है । आधुनिक विद्वान भी इनके आधारसे दोनों प्रकारके उत्तर देते हुए पाये जाते हैं। कोई तो वेदनीयको बाह्य सामग्रीकी प्राप्तिका निमित्त बतलाते है और कोई लाभान्तराय आदिके क्षय व क्षयोपशमको । इन विद्वानोंके ये मत उक्त प्रमाणोंके बलसे भले ही बने हों किन्तु इतने मात्रसे इनकी पुष्टि नहीं की जा सकती, क्योंकि उक्त कथन मूल कर्मव्यवस्थाके प्रतिकूल पड़ता है। यदि थोड़ा बहुत इन मतोंको प्रश्रय दिया जा सकता है तो उपचारसे ही दिया जा सकता है । वीरसेन स्वामीने तो स्वर्ग, भोगभूमि और नरकमें सुख दुखकी निमित्तभूत सामग्रीके साथ वहाँ उत्पन्न होनेवाले जीवोंके साता और असाताके उदयका सम्बन्ध देखकर उपचारसे इस नियमका निर्देश किया है कि बाह्य सामग्री साता और असाताका फल है । तथा पूज्यपादस्वामीने संसारी जीवमें बाह्य सामग्रीमें लाभादिरूप परिणाम लाभान्तराय आदिके क्षयोपशमका फल जानकर उपचारसे इस नियमका निर्देश किया है कि लाभान्तराय आदिके क्षय व क्षयोपशमसे बाह्य सामग्रीकी प्राप्ति होती है। तत्त्वतः बाह्य सामग्रीकी प्राप्ति न तो साता असाताका ही फल है और न लाभान्तराय आदि कर्मके क्षय व क्षयोपशमका ही फल है । बाह्य सामग्री इन कारणोंसे न प्राप्त होकर अपने-अपने कारणोंसे ही प्राप्त होती है । उद्योग करना, व्यवसाय करना, मजदूरी करना, व्यापारके साधन जुटाना, राजा महाराजा या सेठ साहुकारकी चाटुकारी करना, उनसे दोस्ती जोड़ना, अजित धनकी रक्षा करना, उसे व्याजपर लगाना, प्राप्त धनको विविध व्यवसायोंमें लगाना, खेती बाड़ी करना, झांसा देकर ठगी करना, जेब काटना, चोरी करना, जुआ खेलना, भीख मांगना, धर्मादायको संचित कर पचा जाना आदि बाह्य सामग्रीकी प्राप्तिके साधन है । इन व अन्य कारणोंसे बाह्य सामग्रीकी प्राप्ति होती है उक्त कारणोंसे नहीं । शंका--इन सब बातोंके या इनमेंसे किसी एकके करनेपर भी हानि देखी जाती है सो इसका क्या कारण है ? समाधान-प्रयत्नकी कमी या बाह्य परिस्थिति या दोनों । शंका-कदाचित व्यवसाय आदिके नहीं करनेपर भी धनप्राप्ति देखी जाती है सो इसका क्या कारण है? समाधान-यहाँ यह देखना है कि वह प्राप्ति कैसे हुई है ? क्या किसीके देनेसे हुई या कहीं पड़ा हुआ धन मिलनेसे हई है ? यदि किसीके देनेसे हुई है तो इसमें जिसे मिला है उसके विद्या आदि गण कारण हैं या देनेवालेकी स्वार्थसिद्धि, प्रेम आदि कारण हैं । यदि कहीं पड़ा हुआ धन मिलनेसे हुई है तो ऐसी धनप्राप्ति पुण्योदयका फल कैसे कहा जा सकता है । यह तो चोरी है। अतः चोरीके भाव इस धन प्राप्तिमें कारण हए न कि साताका उदय । शंका--दो आदमी एक साथ एकसा व्यवसाय करते हैं फिर क्या कारण है कि एक.को लाभ होता है और दूसरेको हानि ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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