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________________ चतुर्थ खण्ड : ५०७ अवस्थाएँ होती है उनका मुख्य कारण कर्म है । स्वामी समन्तभद्र आप्तमीमांसामें कर्मके कार्यका निर्देश करते हुए लिखते हैं 'कामादिप्रभवश्चित्रः कर्मबन्धानुरूपतः ।' 'जीवकी काम, क्रोध आदि रूप विविध अवस्थाएँ अपने अपने कर्मके अनुरूप होती हैं।' बात यह है कि मुक्त दशामें जीव की प्रति समय जो स्वाभाविक परिणति होती है उसका अलग-अलग निमित्त कारण नहीं है, नहीं तो उसमें एकरूपता नहीं बन सकती । किन्तु संसारदशामें वह परिणति प्रति समय जुदी-जुदी होती रहती है, इसलिये उसके जुदे-जुदे निमित्त कारण माने गये हैं । ये निमित्त संस्कार रूप में आत्मासे सम्बद्ध होते रहते हैं और तदनुकूल परिणतिके पैदा करनेमें सहायता प्रदान करते हैं । जीवकी अशुद्धता और शुद्धता इन निमित्तोंके सद्भाव और असद्भावपर आधारित है । जब तक इन निमित्तोंका एकक्षेत्रावगाह संश्लेषरूप सम्बन्ध रहता है तब तक अशुद्धता बनी रहती है और इनका सम्बन्ध छूटते हो जीव शुद्ध दशाको प्राप्त हो जाता है । जैन दर्शनमें इन्हीं निमितोंको कर्म शब्दसे पुकारा गया है। ऐसा भी होता है कि जिस समय जैसी बाह्य सामग्री मिलती है उस समय उसके अनुकूल अशुद्ध आत्माकी परिणति होती है। सुन्दर सुस्वरूप स्त्रीके मिलनेपर राग होता है । जुगुप्साकी सामग्री मिलनेपर ग्लानि होती है । धन सम्पत्तिको देखकर लोभ होता है और लोभवश उसके अर्जन करने, छीन लेने या चुरा लेनेकी भावना होती है। ठोकर लगनेपर दुःख होता है और मालाका संयोग होने पर सुख । इसलिये यह कहा जा सकता है कि केवल कर्म ही आत्माकी विविध परिणतिके होने में निमित नहीं है किन्तु अन्य सामग्री भी उसका निमित्त है, अतः कर्मका स्थान बाह्य सामग्रीको मिलना चाहिये । परन्तु विचार करनेपर यह युक्त प्रतीत नहीं होता, क्योंकि अन्तरंगमें वैसी योग्यताके अभावमें बाह्य सामग्री कुछ भी नहीं कर सकती हैं। जिस योगीके रागभाव नष्ट हो गया है उसके सामने प्रबल रागकी सामग्री उपस्थित होनेपर भी राग पैदा नहीं होता। इससे मालूम पड़ता है कि अन्तरंगमें योग्यताके बिना बाह्य सामग्रीका कोई मूल्य नहीं है। यद्यपि कर्मके विषयमें भी ऐसा ही कहा जा सकता है पर कर्म और बाह्य सामग्री इनमें मौलिक अन्तर है। कर्म वैसी योग्यताका सूचक है पर बाह्य सामग्रीका वैसी योग्यतासे कोई सम्बन्ध नहीं। कभीसी योग्यताके सद्भावमें भी बाह्य सामग्री नहीं मिलती और कभी उसके अभावमें भी बाह्य सामग्रीका संयोग देखा जाता है। किन्तु कर्मके विषयमें ऐसी बात नहीं है । उसका सम्बन्ध तभी तक आत्मासे रहता है जब तक उसमें तदनुकूल योग्यता पाई जाती है । अतः कर्मका स्थान बाह्य सामग्री नहीं ले सकती। फिर भी अन्तरंगमें योग्यताके रहते हुए बाह्य सामग्रीके मिलनेपर न्यूनाधिक परिमाणमें कार्य तो होता ही है। इसलिये निमित्तोंकी परिगणनामें बाह्य सामग्रीकी भी गिनती हो जाती है । पर यह परम्परानिमित्त है इसलिये इसकी परिगणना नोकर्मके स्थानमें की गई है। इतने विवेचनसे कर्मको कार्य मर्यादाका पता लग जाता है। कर्मके निमित्तसे जीवकी विविध प्रकारकी अवस्था होती है और जीवमें ऐसी योग्यता आती है जिससे वह योग द्वारा यथायोग्य शरीर, वचन और मनके योग्य पुद्गलोंको ग्रहण कर उन्हें अपनी योग्यतानुसार परिणमाता है। कर्मकी कार्यमर्यादा यद्यपि उक्त प्रकारकी है तथापि अधिकतर विद्वानोंका विचार है कि बाह्य सामग्रीकी प्राप्ति भी कमसे होती है। इन विचारोंकी पुष्टिमें वे मोक्षमार्ग प्रकाशके निम्न उल्लेखोंको उपस्थित करते हैं-'तहाँ वेदनीय करि तौ शरीर विष वा शरीर तै बाह्य नाना प्रकार सुख दुःखनिको कारण परद्रव्यका संयोग जुरै है ।' पृ० ३५। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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