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________________ चतुर्थ खण्ड : ४८५ करके ही चुप नहीं रह गये किन्तु ताडपत्रीय प्रतियोंके आधारसे जो ताम्रपत्र प्रति तैयार की गयी, उसके ९३ वें सत्रमें भी श्री आ० शान्तिसागरजी महाराजको प्रेरणाकर ९३ वें सूत्रका 'संयत' पदसे रहित ही अंकन कराया। इसी बीच सागरमें विद्वत्परिषद्की कार्यकारिणीकी बैठक हो रही थी उसमें पू० श्री बड़े वर्णीजी-बाबा और आ० स्व. श्री पं० देवकीनंदनजी साहब भी पधारे हए थे। समस्या कठिन थी। 'संजद' पदके विषयमें निर्णयकी पद्धति क्या हो इस विषयमें ऊहापोह चल ही रहा था। विविध विद्वानोंके विविध मत आ रहे थे। इसी बीच श्रद्धेय स्व० पं० देवकीनंदजी साहबको आवश्यक कार्यवश कारंजा जाना था इसलिये मैं उन्हें स्टेशन तक पहुँचानेके लिये चला गया। अन्तमें मैंने पंडितजीसे पूछा कि 'इस विषयका निर्णय किस प्रकार लिया जाय । अनुभवी पंडितजीने बतलाया कि विद्वत्परिषद्का स्थल शंका समाधानके रूपमें निर्णय करनेका नहीं है किन्तु 'संजद' पद चाहिये अथवा नहीं चाहिये इस विषयमें ऊहापोह पूर्वक एक प्रस्ताव द्वारा अपना मन्तव्य प्रगट करनेका है। पंडितजी तो कारंजा चले गये, किन्तु वहाँसे आकर हमने इसी अभिप्रायको ध्यानमें रखकर 'संजद' पदके पक्षमें विविध प्रमाणोंके प्रकाशमें एक भाषण द्वारा अपना अभिमत व्यक्त किया। साथ ही विविध विद्वानोंकी ओरसे जो शंकायें आयीं उनका समाधान भी किया। इसलिये इस आधारपर विद्वत्परिषदने सतप्ररूपणाके ९३ वें सूत्रमें 'संजद' पद नियमसे होना चाहिए इस आशयका सर्वानुमतिसे एक प्रस्ताव पास किया । उस समय मेरा वह भाषण इतना प्रभावोत्पादक बन गया जिसकी इन शब्दोंमें पू० श्री बड़े वर्णीजीने अपनी 'मेरी जीवन गाथा' प्रथम भाग पृ० ५४६ पर उल्लेख किया है "इन्हीं चार दिनोंमें विद्वत्परिषदकी कार्यकारिणीकी बैठक हुई। 'संजद' पदकी चर्चा हुई, जिसमें श्री पं० फूलचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्रीका तेरानवें सूत्रमें 'संजद' पदकी आवश्यकतापर मार्मिक भाषण हुआ और उन्होंने सबकी शंकाओंका समाधान भी किया। इसमें श्री पं० वर्द्धमानजी सोलापुरने अच्छा भाग लिया था। अन्तमें सब विद्वानोंने मिलकर निर्णय दिया कि धवल सिद्धान्तके तेरानवें सत्रमें 'संजद' पदका होना आवश्यक है।" विद्वतपरिषदका प्रस्ताव “फाल्गुन शुक्ल ३ वीर निर्वाण संवत २४७६ को गजपन्थामें आचार्य श्री १०८ शांतिसागरजी महाराज द्वारा की गई जीवस्थान प्ररूपणाके ९३ वें सूत्रसे ताडपत्रीय मूल प्रतिमें उपलब्ध 'संजद' निष्कासनकी घोषणापर विचार करनेके बाद भारतवर्षीय दि० विद्वत्परिषद्की यह कार्यकारिणी जून सन् ४० में सागर आयोजित विद्वत् सम्मेलनके अपने निर्णयको दुहराती है तथा इस प्रकारसे ताम्रपत्रीय एवं मुद्रित प्रतियोंमें 'संजद' पद निष्कासनकी पद्धतिसे अपनी असहमति प्रकट करती है ।" इस प्रकार यद्यपि तेरानवें सूत्रमें 'संजद' पदकी आवश्यकतापर विद्वत्परिषदने अपनी मोहर लगा दी फिर भी स्व० श्री पं० मक्खनलालजीके परिकर द्वारा इस विवादको जीवित बनाये रखा गया। इसलिये इटावामें विद्वत्परिषदके अधिवेशनके समय उसने तेरानवें सूत्रमें 'संजद' पद होना चाहिये इस आशयका एक प्रस्ताव पुनः पास किया। इसप्रकार पुनः पुनः विधिनिषेध रूपसे इस चर्चाके चालू रहनेपर अन्तमें आ० श्री १०८ शांतिसागरजी महाराजने दोनों पक्षोंके विचारोंका और प्रमाणोंका अध्ययन करके अन्तमें अपने पूर्व वक्तव्यको वापिस लेते हए पूरे विद्वत् समाजकी जानकारीके लिये मराठीमें जो अभिमत व्यक्त किया वह इस प्रकार है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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