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________________ चतुर्थ खण्ड : ४७९ इस प्रसंगमें इस बातका संकेत करना आवश्यक प्रतीत होता है कि यद्यपि गुरुजीने (पृ० ३३७) भाषाके भेदोंमें दिव्यध्वनिको सम्मिलित कर अन्तमें लिखा है कि 'इस भाषात्मक शब्दके समस्त ही भेद परके प्रयोगसे उत्पन्न होते हैं, इसलिये प्रायोगिक है । पर इसे सामान्य निर्देश ही समझना चाहिए। विशेषरूपसे विचार करनेपर केवलीके रागका अभाव होनेमें दिव्यध्वनिको प्रायोगिक न कह कर स्वाभाविक कहना और मानना ही उचित है।' आगमका भी यही अभिप्राय है। . यह अधिकार तत्त्वार्थसूत्र और उसकी टीकाओंका आलोडनकर लिखा गया है। पुद्गल और उसके उत्तर भेदके सम्बन्धमें उक्त ग्रन्थोंमें जितना विवंचन पाया जाता है उस सबका इसमें ऊहापोह किया गया है। पाँचवाँ अधिकार है-धर्म और अधर्म द्रव्यनिरूपण (पृ० १५० से १५९ तक)। इस अधिकारमें प्रकृतमें धर्म और अधर्म पदसे पुण्य-पाप नहीं लिये गये हैं इसका निर्देश करने के बाद इन दोनों द्रव्योंके स्वरूपका निर्देश किया गया है। प्रश्न यह है कि ये दोनों द्रव्य हैं इसे कैसे स्वीकार किया जाय ? इसीके उत्तर स्वर आगम और अनुमानप्रमाणसे इनकी सिद्धि की है। आगमप्रमाणसे सिद्धि करते हुए उन्होंने तत्त्वार्थसूत्र अ० ५, सूत्र १ को उपस्थित किया है। अनुमानप्रमाणसे सिद्धि करते समय बतलाया है कि लोकमें जितने भी कार्य होते हैं वे सब कारणपूर्वक होते हुए ही देखे जाते हैं। ऐसा एक भी कार्य दृष्टिगोचर नहीं होता जो बाह्य और आभ्यन्तर कारणोंके अभावमें हआ हो। इतना सब स्पष्टीकरण करनेके बाद उन्होंने लिखा है-'गति और गतिपूर्वक स्थिति ये दो कार्य जीव और पुद्गल इन दो ही द्रव्योंमें होते हैं, अन्यमें नहीं होते । जीव और पुद्गलके गति और गतिपूर्वक स्थितिरूप कार्य अनेक कारणजन्य है । उनमें जीव और पुद्गल तो उपादान कारण हैं और धर्म और अधर्म द्रव्य निमित्तकारण हैं । बस, जीव और पुद्गलके गति और गतिपूर्वक स्थितिरूप कार्यसे धर्म और अधर्मद्रव्यरूप निमित्तकारणका अनुमान होता है । यद्यपि मछली आदिककी गतिमें जलादिक और अश्वादिककी गतिपूर्वक स्थितिमें पथ्वी आदिक निमित्तकारण हैं तथापि पक्षियोंके गमनागनादिक कार्यों में निमित्तकारणका अभाव होनेसे धर्म और अधर्म द्रव्यका सद्भाव सिद्ध होता है। अथवा जलादि पदार्थ मछली आदिकके गमनमें निमित्तकारण हैं किन्तु धर्म और अधर्म द्रव्य युगपत् समस्त पदार्थोंकी गति-स्थितिमें साधारण कारण हैं । ये धर्म और अधर्मद्रव्य लोकव्यापी है, इसलिये ये साधारण कारण हो सकते हैं । अन्य पदार्थ लोकव्यापी न होनेसे साधारण कारण नहीं हो सकते ।' आगे आकाशद्रव्यको जीव और पुद्गलोंकी गति-स्थितिका हेतु माननेमें क्या आपत्ति है इस प्रश्नका समाधान कर लोक और अलोकके विभागके हेतुरूपसे भी धर्म और अधर्म द्रव्यकी सिद्धि की गई । लोक और अलोकका विभाग असिद्ध है ऐसा प्रश्न होनेपर लोककी सान्तता सिद्ध कर लोक और अलोककी स्थापना की गई है। इस अधिकारका अन्त करते हए गुरुजीने षट्स्थानपतित वृद्धि हानिका स्वरूप बतलाकर अन्तमें लिखा है कि किन्तु वृद्धि और हानिके उपयुक्त छह-छह स्थानोंमेंसे किसी एक स्थान रूप वृद्धि या हानि होती है ।' छठे अधिकारका नाम है-आकाशद्रव्यनिरूपण (पृ० १५९ से १९३ तक)। इस अधिकारका निरूपण करते हुए गुरुजीने बतलाया है--आकाश भी एक द्रव्य है, क्योंकि इसमें 'उत्पाद-व्यय-ध्रौव्ययुक्तं सत्' और १. प्रवचनसार गाथा ४४ और उसकी अमतचन्द्र आचार्य कृत टीका। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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