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________________ चतुर्थखण्ड : ४७७ अनेकान्त स्वरूपको स्पष्ट करनेके बाद तत्त्वार्थवार्तिक अ० ४ सू० ४२ में दिये गये ग्यारह हेतुओं द्वारा प्रत्येक वस्तुको अनेकान्तात्मक सिद्ध किया गया है ( पृ० ७५ से ८० तक ) । तदनन्तर ( पृ० ८० ) प्रतिपादन के १ 'क्रमसे और २ युगपत्' ये दो प्रकार बतला कर लिखा है कि जिस समय कालादिसे अस्तित्वादिक धर्मोकी भेद विवक्षा हैं उस समय एक शब्द अनेक धर्मोका प्रतिपादन करने में असमर्थ होनेते वस्तुका निरूपण क्रमसे किया जाता है और जिस समय उन ही धर्मोका कालादिसे अभेदवृत्तिसे निजस्वरूप कहा जाता है उस समय एक ही शब्द द्वारा एक धर्म प्रतिपादन मुखसे समस्त अनेक धर्मोकी प्रतिपादकता सम्भव है, इसलिए वस्तुका निरूपण युगपत् रूपसे कहा जाता है । यहाँ युगपत् निरूपणका नाम ही मकलादेश है, उस हीको प्रमाण वचन कहते हैं और क्रमसे निरूपणका नाम ही विकलादेश है, उस हीको नय वचन कहते हैं——‘सकलादेशी प्रमाणाधीनः विकलादेशो नयाधीनः' ऐसा आगमका वचन भी है । यहाँ इतना विशेषरूपसे जानना चाहिए कि सकलादेशरूप प्रमाण वचनकी प्रवृत्ति अभेदवृत्ति और अभेदोपचार इस तरह दो प्रकारसे होती है । द्रव्यार्थिकनय से समस्त धर्म अभिन्न है, इसलिए अभेदवृत्तिको स्वीकार कर प्रमाण वचनका प्रयोग होता है और पर्यायाधिकनयसे समस्त धर्म परस्पर भिन्न भी हैं, इसलिए विवक्षित धर्ममें दोष धर्मो अध्यारोप करके प्रमाण वचनका प्रयोग किया जाता है ( पृ० ८१ ) । इतना स्पष्ट करनेके बाद इन दोनों प्रकारके वचनोंमेंसे प्रत्येकको सात-सात प्रकारका बतलाकर उनकी क्रमशः प्रमाणसप्तभंगी और नवसप्तभंगी ये संज्ञाएँ सूचितकर प्रमाणसप्तभंगी के प्रत्येक भंगको विस्तारके साथ स्पष्ट किया गया है ( पृ० ८२ से १०८ तक ) । विकलादेशकी अपेक्षा कथन करते समय निरंश वस्तुमें गुणभेदसे अंशकल्पनाकी मुख्यता रहती है । सकलादेश और बिकलादेश में अन्तर यह है कि सकलादेशमें शब्द द्वारा उच्चरित धर्म द्वारा शेष समस्त धर्मोका संग्रह है और विकलादेशमें शब्द द्वारा उच्चरित धर्मका ही ग्रहण है। शेष धर्मोका न विधि है और न निषेध है। इतना अवश्य है कि एकान्तका परिहार करनेके लिए प्रत्येक वाक्यमें 'स्वात्' पद द्वारा उनका द्योतन अवश्य कर दिया जाता है। साथ ही प्रत्येक वाक्यमें अवधारणके लिए 'एवकार'का प्रयोग भी अवश्य किया जाता है । प्रमाण वचन और नय वचन सात-सात ही क्यों होते हैं इसका स्पष्टीकरण करते हुए वहाँ बतलाया है कि ' वस्तु किसी धर्मकी अपेक्षा कथंचित् अस्तिस्वरूप है, उसके प्रतियोगी धर्मकी अपेक्षासे नास्तिस्वरूप है और दोनोंकी युगपत् विवक्षासे अवस्तव्यस्वरूप है। इस प्रकार वस्तुमें किसी एक धर्म और उसके प्रतियोगीकी अपेक्षासे अस्ति, नास्ति और अवक्तव्य ये तीन धर्म होते हैं । इन तीन धर्मोके संयुक्त और असंयुक्त सात ही भंग होते हैं, न हीन होते हैं और न अधिक होते हैं (११०) ।' आगे अनेकान्त में विरोधको शंकाका परिहार करके भावकान्त अभावकान्त, अद्वर्तकान्त और पृथक्त्वकान्तका निरसन कर इस अध्यायको समाप्त किया गया है । :३: तीसरा अधिकार है-— अजीव द्रव्य निरूपण ( पृ० ११८ से १३५ तक) । यद्यपि इस अधिकारमें अजीव द्रव्य निरूपणकी प्रतिज्ञा की गई है, परन्तु अलौकिक गणितको ठीक तरहसे बतलाये बिना द्रव्योंके छोटापन, बड़ापन तथा गुणोंकी मन्दता और तीव्रता आदिका निरूपण नहीं बन सकता, इसलिए इस अधिकार में सर्व प्रथम अलौकिक गणितका कथनकर अजीव द्रव्यका निरूपण किया गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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