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________________ ४६६ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ साधारणतः इनका समय ११वीं शताब्दिका प्रथम चरण माना जाता है । इन्हें पं० प्र० आशाधरजीने 'ठक्कर' शब्दसे सम्बोधित किया है। गुजरातमें ऐसी अनेक जातियाँ पायी जाती थीं और वर्तमानमें भी पायी जाती हैं जिनमेंसे कई घराने अपनेको ठक्कुर शब्दसे सम्बोधित करते रहे हैं। इसलिए यह बहुत सम्भव है कि ये मूलतः गुजरातके रहनेवाले हों। साधारणतः गुजरातकी पुरानी तीन जातियां मुख्य हैंप्राग्वाट, ओसवाल और श्रीमाल-इनमेंसे ओसवाल और श्रीमाल दो जातियाँ तो १०वीं शताब्दिके लगभगसे ही या उनके पर्वसे श्वेताम्बर सम्प्रदायको मानने वाली रही हैं। जो तीसरी जाति प्राग्वाट है, वह अवश्य ही श्वेताम्बर और दिगम्बर-दोनों परम्पराओंको मानने वाली चली आ रही है। पौरपाट (परवार) सोरठिया पद्मावती पुरवाल और पोरवाल आदि-ये सब प्राग्वाट जातिके उपभेद है । इनमें से एक पौरपाट जाति अवश्य ही ऐसी है जो प्रारम्भसे ही दिगम्बर परम्परामें भी केवल कुंदकुंद आम्नायकी ही उपासक रही है । इसलिए बहुत सम्भव है कि आ० अमृतचन्द्रका जन्म इस जातिमें हुआ हो तो कोई आश्चर्य नहीं । यह हम अतिशयोक्किमें नहीं लिख रहे हैं, किन्तु गुजरातकी पूर्ण स्थितिका अध्ययन करके ही लिख रहे हैं । इसलिए आ० अमृतचन्द्रदेव काष्ठासंघी न होकर मूलसंघी ही होने चाहिए । इन्होंने सम्यग्दर्शनके आठ अंगोंका विवेचन करते हुए अमूल दृष्टि अंगका जो स्वरूपनिर्देश किया है वह हमारे इस तथ्यकी पुष्टि करनेके लिए पर्याप्त है । इस अंगका विवेचन करते हुए वे लिखते हैं लोके शास्त्राभासे समयाभासे च देवताभासे । नित्यमपि तत्त्वरुचिना कतव्यममढष्टित्वम् ॥२६॥ तत्त्वमें रुचि रखनेवाले जीवको लोकमें शास्त्राभासमें, समयाभासमें और देवताभासमें सदा ही मूढ़ता रहित होकर श्रद्धान करना चाहिए । स्पष्ट है कि आचार्य अमृतचन्द्रदेव ने अमूढ़ दृष्टिके इस लक्षण द्वारा लोक मूढ़ता, देव मूढ़ताका और गुरु मूढ़ताका स्पष्ट शब्दोंमें निषेध कर दिया है। ____ सम्यक्त्वके आठ अंग हैं इस परम्पराको विशेष प्रश्रय मूलसंघने ही दिया है। मेरी दृष्टिमें काष्ठासंघके ग्रन्थोंमें इस परम्पराके विशेष दर्शन नहीं होते। वैसे सम्यक्त्वके २. दोष हैं, उत्तर कालमें इस विषयका विशेष उल्लेख पोण्डत प्रवर आशाधरजीने स्वरचित अनगार धर्मामृतके अ० २ श्लोक १०३ की टीकामें अवश्य किया है। और वहीं सम्यक्त्वकी विशुद्धिके कारण रूपमें उपगृहन, स्थितीकरण, वात्सल्य और प्रभावनाका भी स्वरूपनिर्देश किया है तथा सम्यक्त्वके पाँच अतीचारोंका कथन करनेके प्रसंगसे शंका, कांक्षा और विचिकित्सा दोषका निषेध भी किया है । इससे ऐसा निष्कर्ष अवश्य निकलता है कि सम्यक्त्वके आठ अंगोंकी परम्परा सर्वत्र निविवाद रूपसे स्वीकार की गई है। फिर भी जिस स्पष्टतासे मूलसंघने इस परम्पराको प्रथय दिया है वह स्थिति काष्ठासंघकी नहीं प्रतीत होती है। एक बात विशेषरूपसे उल्लेखनीय है। वह यह कि शासनदेवताके नामपर काष्ठासंघमें राग-द्वेषसे मेरे व्यंतरादिक देव-देवियोंकी जो पूजा दृष्टिगोचर होती है वह स्थिति पुरुषार्थसिद्धयुपाय ग्रन्थकी नहीं है। इस लिये पुरुषार्थसिद्धि उपायके रचयिता आ० अमृतचंद्रदेवको काष्ठासंघी स्वीकार करना उनका अवर्णवाद करना ही कहलायेगा। इनकी रचनायें अनेक हैं, जैसे-समयप्राभृत, प्रवचनसार और पंचास्तिकायकी टीकायें और तत्त्वार्थसूत्र और लघुतत्वस्फोट । पुरुषार्थसिद्धयुपाय भी उन्हींकी सारगर्भित रचनायें हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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