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________________ ४५२ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ कर्ता-कर्म-क्रियाका ज्ञान कराते हुए कलश ५१ की टीकामें पुनः लिखा है 'कर्ता-कर्म-क्रियाका स्वरूप तो इस प्रकार है, इसलिये ज्ञानावरणादि द्रव्य पिण्डरूप कर्मका कर्ता जीवद्रव्य है ऐसा जानना झूठा है, क्योंकि जीवद्रव्यका और पुद्गलद्र व्यका एक सत्त्व नहीं; कर्ता-कर्म-क्रियाकी कौन घटना ?' इसी तथ्यको कलश ५२-५३ में पुनः स्पष्ट किया है 'ज्ञानावरणादि द्रव्यरूप पुदगलपिण्ड कर्मका कर्ता जीववस्तु है ऐसा जानपना मिथ्याज्ञान है, क्योंकि एक सत्त्वमें कर्ता-कर्म-क्रिया उपचारसे कहा जाता है । भिन्न सत्त्वरूप है जो जीवद्रव्य-पुद्गलद्रव्य उनको कर्ता-कर्मक्रिया कहाँसे घटेगा ?' 'जीवद्रव्य-पुद्गलद्रव्य भिन्न सत्तारूप हैं सो जो पहले भिन्न सत्तापन छोड़कर एक सत्तारूप होवें तो पीछे कर्ता-कर्म-क्रियापना घटित हो। सो तो एकरूप होते नहीं, इसलिये जीव-पुद्गलका आपसमें कर्ता-कर्मक्रियापना घटित नहीं होता।' जीव अज्ञानसे विभावका कर्ता है इसे स्पष्ट करते हुए कलश ५८ की टीकामें लिखा है "जैसे समुद्रका स्वरूप निश्चल है, वायुसे प्रेरित होकर उछलता है और उछलनेका कर्ता भी होता है, वैसे ही जीव द्रव्यस्वरूपसे अकर्ता है। कर्म संयोगसे विभावरूप परिणमता है, इसलिये विभावपनेका कर्ता भी होता है । परन्तु अज्ञानसे, स्वभाव तो नहीं ।' जीव अपने परिणामका कर्ता क्यों है और पुदगल कर्मका कर्ता क्यों नहीं इसका स्पष्टीकरण कलश ६१ की टोकामें इसप्रकार किया है 'जीवद्रव्य अशुद्ध चेतनारूप परिणमता है, शुद्ध चेतनारूप परिणमता है, इसलिये जिस कालमें जिस चेतनारूप परिणमता है उस कालमें उसी चेतनाके साथ व्याप्यव्यापकरूप है, इसलिये उस कालमें उसी चेतनाका कर्ता है । तो भी पुद्गल पिण्डरूप जो ज्ञानावरणादि कर्म है उसके साथ तो व्याप्य-व्यापकरूप तो नहीं है। इसलिये उसका कर्ता नहीं है।' जीवके रागादिभाव और कर्म परिणाममें निमित्त-नैमित्तिकभाव क्यों है, कर्ता-कर्मपना क्यों नहीं इसका स्पष्टीकरण कलश ६८की टीकामें इसप्रकार किया है 'जैसे कलशरूप मृत्तिका परिणमती है, जैसे कुम्भकारका परिणाम उसका बाह्य निमित्त कारण है, व्याप्य-व्यापकरूप नहीं है उसीप्रकार ज्ञानावरणादि कर्म पिण्डरूप पुद्गलद्रव्य स्वयं व्याप्य-व्यापकरूप है । तथापि जीवका अशुद्धचेतनारूप मोह, राग, द्वेषादि परिणाम बाह्य निमित्त कारण है, व्याप्य-व्यापकरूप तो नहीं है।' वस्तुमात्रका अनुभवशीली जीव परम सुखी कैसे है इसे स्पष्ट करते हुए कलश ६९ की टीकामें कहा है___ 'जो एक सत्त्वरूप वस्तु है, उसका द्रव्य-गुण-पर्यायरूप, उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यरूप विचार करनेपर विकल्प होता है, उस विकल्पके होनेपर मन आकुल होती है, आकुलता दुःख है, इसलिये वस्तुमात्रके अनुभवने पर विकल्प मिटता है, विकल्पके मिटनेपर आकुलता मिटती है, आकुलताके मिटनेपर दुःख मिटता है, इससे अनुभवशीली जीव परम सुखी है।' स्वभाव और कर्मोपाधिमें अन्तरको दिखलाते हुए कलश ९१ की टीकामें लिखा है 'जैसे सूर्यका प्रकाश होनेपर अंधकार फट जाता है उसीप्रकार शुद्ध चैतन्यमात्रका अनुभव होनेपर यावत समस्त विकल्प मिटते हैं । ऐसी शुद्ध चैतन्यवस्तु है सो मेरा स्वभाव, अन्य समस्त कर्मकी उपाधि है।' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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