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________________ चतुर्थ खण्ड : ४४९ प्राक्पदव्यां (क० ५)-अर्वाचीनपदव्यां'-व्यवहारपदव्यां। ज्ञानी जीवको दो अवस्थाएँ होती हैं-सविकल्प दशा और निर्विकल्प दशा । प्रकृतमें 'प्राक्पदवी' पदका अर्थ 'सविकल्प दशा' है। इस द्वारा यह अर्थ स्पष्ट किया गया है कि यद्यपि सविकल्प दशामें व्यवहारनय हस्तावलम्ब है, परन्तु अनुभूति अवस्थामें (निर्विकल्प दशामें) उसका कोई प्रयोजन नहीं। इसी भावको कविवर इन शब्दोंमें स्पष्ट करते हुए लिखते हैं 'जो कोई सहजरूपसे, अज्ञानी (मन्दज्ञानी) हैं, जीवादि पदार्थोंका द्रव्य-गुण पर्यायस्वरूप जाननेके अभिलाषी हैं, उनके लिये गुण-गुणी भेदरूप कथन योग्य है।' नवतत्त्वगतत्वेऽपि यदेकत्वं न मुञ्चति (क० ७)-जीववस्तु नौ तत्त्वरूप होकर भी अपने एकत्त्वका त्याग नहीं करती इस तथ्यको समझानेका कविवरका दृष्टिकोण अनूठा है। उन्हीं के शब्दोंमें पढ़िये 'जैसे अग्नि दाहक लक्षणवाली है, वह काष्ठ, तृण, कण्डा आदि समस्त दाह्यको दहती है, दहती हई अग्नि दाह्याकार होती है, पर उसका विचार है कि जो उसे काष्ठ, तृण और कण्डेकी आकृतिमें देखा जाये तो काष्ठकी अग्नि, तृष्णाकी अग्नि और कण्डेकी अग्नि ऐसा कहना साँचा ही है । और अग्निकी उष्णतामात्र विचारा जाये तो उष्णमात्र है । काष्ठको अग्नि, तणकी अग्नि और कण्डेकी अग्नि ऐसे समस्त विकल्प झूठे हैं। उसी प्रकार नौ तत्त्वरूप जीवके परिणाम हैं। वे परिणाम कितने ही शुद्धरूप हैं, कितने ही अशुद्ध रूप है । जो नौ परिणाममें ही देखा जाये तो नौ ही तत्त्व साँचे हैं और जो चेतनामात्र अनुभव किया जाये तो नौ ही विकल्प झूठे हैं।' इसी तथ्यको कलश ८ में स्वर्ण और वानभेदको दृष्टान्तरूपमें प्रस्तुत कर कविवरने और भी आलंकारिक भाषा द्वारा समझाया है । यथा 'स्वर्णमात्र न देखा जाये, बानभेदमात्र देखा जाय तो बानभेद है; स्वर्णकी शक्ति ऐसी भी है। जो बानभेद न देखा जाय, केवल स्वर्णमात्र देखा जाय तो बानभेद झूठा है। इसी प्रकार जो शुद्ध जीव वस्तुमात्र न देखी जाय, गुण-पर्यायमात्र या उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यमात्र देखा जाय तो गुण-पर्याय है तथा उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य है: जीव वस्तु ऐसी भी है। जो गुण-पर्याय भेद या उत्पाद व्यय-ध्रौव्य भेद न देखा जाय, वस्तुमात्र देखी जाय तो समस्त भेद झुठा है । ऐसा अनुभव सम्यक्त्व है।' उदयति न नयश्रीः (क० ९)-अनुभव क्या है और अनुभवके कालमें जीवकी कैसी अवस्था होती है उसे स्पष्ट करते हुए कविने जो वचन प्रयोग किया है वह अद्भुत है । रसास्वाद कीजिये 'अनुभव प्रत्यक्ष ज्ञान है । प्रत्यक्ष ज्ञान है अर्थात् वेद्य-वेदकभावसे आस्वादरूप है और वह अनुभव परसहायसे निरपेक्ष है। ऐसा अनुभव यद्यपि ज्ञानविशेष है तथापि सम्यक्त्वके साथ अविनाभूत है, क्योंकि यह सम्यग्दष्टिके होता है, मिथ्यादृष्टिके नहीं होता है ऐसा निश्चय है । ऐसा अनुभव होने पर जीववस्तु अपने शुद्धस्वरूपको प्रत्यक्षरूपसे आस्वादती है, इसलिये जितने कालतक अनुभव होता है उतने कालतक वचन व्यवहार सहज ही बन्द रहता है ।' इसी तथ्यको स्पष्ट करते हुए वे आगे पुनः लिखते हैं 'जो अनुभवके आने पर प्रमाण-नय-निक्षेप ही झूठा है । वहाँ रागादि विकल्पोंकी क्या कथा । भावार्थ इस प्रकार है-जो रागादि तो झूठा ही है, जीवस्वरूपसे बाह्य है। प्रमाण-नय-निक्षेपरूप बुद्धि के द्वारा एक ही जीवद्रव्यका द्रव्य-गुण-पर्यायरूप अथवा उत्पाद्-व्यय-ध्रौव्यरूप भेद किया जाता है, वे समस्त झूठे हैं । इन सबके झूठे होने पर जो कुछ वस्तुका स्वाद है सो अनुभव है।' १. पद्मनन्दीपंचविंशतिका एकत्त्वसप्तति अधिकार श्लोक १६ । २. उसको टीका । ५७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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