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________________ ४४४ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ इन द्वारा रचित साहित्यमें जो संकेत मिलते हैं उनके अनुसार इन्होंने इन ग्रन्थों की रचना की होगी ऐसा ज्ञात होता है । विवरण इस प्रकार है : १. जम्बूस्वामीचरित, २. पिंगल ग्रन्थ-छंदोविद्या, ३. लाटीसंहिता, ४. अध्यात्मकमल-मार्तण्ड, ५. तत्त्वार्थसूत्र टीका, ६. समयसार कलश बालबोध टीका और ७. पंचाध्यायी । ये उनकी प्रमुख रचनाएँ या टीका ग्रन्थ हैं। यहाँ जो क्रम दिया गया है, संभवतः इसी क्रमसे इन्होंने जनकल्याणहेतु ये रचनाएँ लि पबद्ध की होंगी । संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है : १. कविवर अपने जीवनकालमें अनेक बार मथुरा गये थे। जब ये प्रथमबार मथुरा गये तब तक इनकी विद्वत्ताके साथ कवित्वशक्ति पर्याप्त प्रकाशमें आ गई थी। अतएव वहाँ की एक सभामें इनसे जम्बूस्वामीचरितको लिपिबद्ध करनेकी प्रार्थना की गई। इस ग्रन्थके रचे जानेका यह संक्षिप्त इतिहास है । यह ग्रन्थ वि० सं० १६३३ के प्रारम्भके प्रथम पक्षमें लिखकर पूर्ण हुआ है। इस ग्रन्थकी रचना करानेमें भटानियाँकोल (अलीगढ) निवासी गर्गगोत्री अग्रवाल टोडर साह प्रमख निमित्त हैं। ये वही टोडर साह हैं जिन्होंने अपने जीवन कालमें मथराके जैनस्तुपोंका जीर्णोद्धार कराया था। इनका राजपुरुषोंके साथ अतिनिकटका संबंध (परिचय) था । उनमें कृष्णामंगल चौधरी और गढ़मल्ल साहू मुख्य थे। इसके बाद पर्यटन करते हुए कविवर कुछ कालके लिये नागौर भी गये थे वहाँ इनका संपर्क श्रीमालज्ञातीय राजा भारमल्लसे हुआ। ये अपने कालके वैभवशाली प्रमुख राजपुरुष थे। इन्हींकी सत्प्रेरणा पाकर कविवरने पिंगल ग्रन्थ-छंदोविद्या ग्रन्थका निर्माण किया था। यह ग्रन्थ प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश और तत्कालीन हिन्दीका सम्मिलित नमूना है। ३. तीसरा ग्रन्थ लाटीसंहिता है। मुख्य रूपसे इसका प्रतिपाद्य विषय श्रावकाचार है । जैसा कि मैं पूर्वमें निर्देश कर आया हूँ कि ये भट्टारक परम्पराके प्रमुख विद्वान् थे। यही कारण है कि इसमें भट्टारकों द्वारा प्रचारित परम्पराके अनुरूप श्रावकाचारका विवेचन प्रमुख रूपसे हुआ है । २८ मूलगुणोंमें जो षडावश्यक कर्म हैं, पर्वकालमें व्रती श्रावकोंके लिये वे ही षडावश्यक कर्म देशवतके रूपमें स्वीकृत थे। उनमें दूसरे कर्मका नाम चतुर्विशतिस्तव और तीसरा कर्म वन्दना है। वर्तमान कालमें जो दर्शन-पजनविधि प्रचलित है, यह उन्हीं दो आवश्यक कर्मोका रूपान्तर है। मूलाचारमें वन्दनाके लौकिक और लोकोत्तर ये दो भेद दृष्टिगोचर होते है । उनमेंसे लोकोत्तर वन्दनाको कर्मक्षपणका हेतु बतलाया गया है। स्पष्ट है कि लौकिक वन्दना मात्र पुण्य बन्धका हेतु है। इन तथ्यों पर दृष्टिपात करनेसे विदित होता है कि पूर्वकालमें ऐसी ही लौकिक विधि प्रचलित थी जिसका लोकोत्तर विधिके साथ सुमेल था। इस समय उसमें जो विशेष फेरफार दृष्टिगोचर होता है वह भट्टारकीय युगकी देन है । लाटीसंहिताकी रचना वैराटनगरके श्री दि० जैन पार्श्वनाथ मंदिरमें बैठकर की गई थी। रचनाकाल वि० सं० १६४१ है । इसकी रचना करानेमें साह फामन और उनके वंशका प्रमुख हाथ रहा है। ४. चौथा ग्रन्थ अध्यात्मकमलमार्तण्ड है। यह भी कविवरकी रचना मानी जाती है। इसकी रचना अन्य किसी व्यक्तिके निमित्तसे न होकर स्वसंवित्तिको प्रकाशित करनेके अभिप्रायसे की गई है। यही कारण है कि इसमें कविवरने न तो किसी व्यक्ति विशेषका उल्लेख किया है और न अपने सम्बन्धमें ही कुल लिखा है। इसके स्वाध्यायसे विदित होता है कि इसकी रचनाके काल तक कविवरने अध्यात्ममें पर्याप्त निपुणता प्राप्त कर ली थी। यह इसीसे स्पष्ट है कि वे इसके दूसरे अध्यायका प्रारम्भ करते हुए यह स्पष्ट संकेत करते हैं कि पुण्य और पापका आस्रव और बन्ध तत्त्वमें अन्तर्भाव होनेके कारण इन दो तत्त्वोंका अलगसे विवेचन नहीं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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