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________________ चतुर्थ खण्ड : ४४१ परिज्ञान इसमें बहुत ही विशद रूपसे कराया गया है। वर्तमान समयमें निश्चय-व्यवहारकी यथावत मर्यादाके विषयमें बड़ी खींचातानी होती रहती है। उसे दूर करनेके लिए इससे बड़ी सहायता मिलती है। विवक्षित कार्यके प्रति अन्यको निमित्त किस रूपमें स्वीकार करना चाहिए इसका स्पष्ट खुलासा करने में भी यह रचना बेजोड़ है। ऐसे अनेक सैद्धान्तिक और दार्शनिक प्रश्न है जिनका सम्यक् समाधान भी इससे किया जा सकता है। ऐतिहासिक तथ्योंके आधारपर आचार्य विद्यानन्दका वास्तव्य काल वि० सं० ८ वीं शताब्दिका उत्तरार्ध और ९ वीं शताब्दिका पूर्वार्ध निश्चित होनेसे यह रचना उसी समयकी समझनी चाहिए । ४. अन्य टीकासाहित्य दिगम्बर परम्परामें तत्त्वार्थसूत्रका विस्तृत और सांगोपांग विवेचन करनेवाली ये तीन रचनाएं मुख्य हैं। इनके अतिरिक्त तत्त्वार्थवृत्ति आदि और भी अनेक प्रकाशित और अप्रकाशित रचनाएँ हैं । हिन्दी, मराठी और गुजराती आदि अन्य अनेक भाषाओंमें भी तत्त्वार्थसूत्रपर छोटे-बड़े अनेक विवेचन लिखे जा चुके हैं। यदि तत्त्वार्थसूत्रपर विविध भाषाओंमें लिखे गये सब विवेचनोंकी सूची तैयारकी जाय तो उसकी संख्या सौ से अधिक हो जायगी। इसलिए उन सबपर यहाँ न तो पृथक् रूपसे प्रकाश ही डाला गया है और न वैसी सूची ही दी गई है। श्वेताम्बर परम्परा दिगम्बर परम्परामें तत्त्वार्थसूत्रका क्या स्थान है यहाँ तक इसका विचार किया। आगे संक्षेपमें श्वेताम्बर परम्पराने तत्त्वार्थसूत्रको · किस रूपमें स्वीकार किया है इसका ऊहापोह कर लेना इष्ट प्रतीत होता है। आचार्य गृद्धपिच्छ आचार्य कुन्दकुन्दके पट्टधर शिष्य थे। उन्होंने किसी भव्य जीवके अनुरोधपर तत्त्वार्थसूत्रकी रचना की है। वर्तमानमें उपलब्ध सर्वार्थसिद्धि यह उसकी प्रथय वृत्ति है । सर्वार्थसिद्धिके रचियता आचार्य पूज्यपादका लगभग वही समय है जब श्वेताम्बर परम्परामें देवर्धिगणिकी अध्यक्षतामें श्वेताम्बर आगमोंका संकलन हुआ था। किन्तु उससे साहित्यिक क्षुधाकी निवृत्ति होती हुई न देखकर श्वेताम्बर परम्पराका ध्यान दिगम्बर परम्पराके साहित्य की ओर गया। उसीके फलस्वरूप ७वीं ८वीं शताब्दिके मध्य किसी समय उमास्वाति वाचकने तत्त्वार्थसत्रमें परिवर्तन कर भाष्यसहित तत्त्वार्थाधिगमकी रचना की । उनका यह संग्रह ग्रन्थ है इसका उल्लेख उन्होंने स्वयं स्वरचित एक कारिकामें किया है। वे लिखते हैं तत्त्वार्थाधिगमाख्यं बह्वथं संग्रहं लघुग्रन्थम् । वक्ष्यामि शिष्यहितमिममर्हद्वचनैकदेशस्य ।।२२।। इससे यह बिल्कुल स्पष्ट हो जाता है कि वाचक उमास्वातिकी यह स्वतन्त्र रचना नहीं है । किन्तु अन्य द्वारा रचित रचनाओंके आधारसे इसका संकलन किया गया है । इनके स्वनिर्मित भाष्यमें कुछ ऐसे तथ्य भी उपलब्ध होते हैं जिनसे विदित होता है कि तत्त्वार्थाधिगम और उसके भाष्यको लिपिबद्ध करते समय इनके सामने तत्त्वार्थसूत्र और उसकी सर्वार्थसिद्धिवृत्ति उनके सामने रही है। उत्तर कालीन स्तुतिस्तोत्रोंमें स्तुतिकारों द्वारा गुणानुवाद आदिमें अपनी असमर्थता व्यक्त करनेके लिए जैसी कविता लिपिबद्धकी गई उसका २. देखो. सर्वार्थसिद्धि प्रस्तावना ४४-४५ आदि । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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