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________________ ४३६ : सिद्धान्ताचार्य पं० फुलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ शक्लध्यान होता है ऐसा आगमवचन है। अतः इस कथनसे यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि धर्मध्यान सविकल्प और निर्विकल्पके भेदोंसे दो प्रकारका होता है। जहाँ शुद्धात्मा ध्येय, शुद्धात्मा आलम्बन और तत्स्वरूप उपयोग एकरस होकर प्रवृत्त होते हैं उसे निर्विकल्प ध्यान कहते हैं और जहाँ ध्येय और आलम्बनके आश्रयसे विचाररूप उपयोगकी प्रवृत्ति होती है उसे सविकल्प ध्यान कहते हैं। स्वानुभूति और निर्विकल्प धर्मध्यान इनमें शब्दभेद है, अर्थभेद नहीं । इतना अवश्य है कि जो मिथ्यादष्टि जीव स्वभाव सन्मुख होकर सम्यग्दर्शनको उत्पन्न करता है उसके सम्यग्दर्शनकी प्राप्तिके समय होनेवाले निर्विकल्प ध्यानको स्वानुभूति कहते हैं । आगे सातवें आदि गणस्थानोंसे उसीका नाम शद्धोपयोग है इन दोनोंमें भी शब्दभेद है अर्थभेद नहीं है। यद्यपि प्रत्येक संसारी जीवके कषायका सद्भाव दसवें गुणस्थान तक पाया जाता है, परन्तु निर्विकल्प धर्मध्यान और पृथक्त्व वितर्क वीचार शुक्ल ध्यानमें उसे आगम अबुद्धिपूर्वक स्वीकार करता है । शंका-शुक्ल ध्यानका प्रथम भेद सवीचार है। उसमें अर्थ, व्यञ्जन और योगकी संक्रान्ति नियमसे होती है । ऐसी अवस्थामें उक्त शुक्लध्यानमें तथा उससे पूर्ववर्ती निविकल्प धर्म ध्यानमें शुद्धात्मा ध्येय और शुद्धात्मा आलम्बन कैसे बन सकता है और वह न बननेरो निरन्तर शुद्धनयकी प्रवृत्ति कैसे बन सकती है ? समाधान-यद्यपि शुक्ल ध्यानके प्रथम भेदमें अर्थ, व्यञ्जन और योगकी संक्रान्ति होती है, परन्तु निरन्तर आत्माश्रित स्वभाव सन्मुख रहने के कारण अन्य ज्ञेय पदार्थमें इष्टानिष्ट बुद्धि नहीं होती, इसलिये उसके इस अपेक्षासे शुक्ल ध्यानके प्रथम भेदमें भी शुद्धात्मा भ्येय और शुद्धात्मा आलम्बन बनकर शुद्धात्माके साधक शुद्धात्मानुभव स्वरूप शुद्धनयकी प्रवृत्ति बन जाती है। श्री समयसार आस्रव अधिकारमें छद्मस्थ ज्ञानीके जघन्य ज्ञान होनेसे उसका पुनः पुनः परिणाम होता है और इसलिये उसे जहाँ ज्ञानावरणादि रूप कर्मबन्धका भी हेतु कहा गया है, वहाँ इसके मुख्य कारणका निर्देश करते हुए आचार्य अमतचन्द्र देवने बतलाया है कि जो ज्ञानी है वह बुद्धिपूर्वक राग, द्वेष मोहरूप आस्रव भावका अभाव होनेसे निरास्रव ही है। किन्तु वह भी जबतक ज्ञानको सर्वोत्कृष्ट रूपसे देखने जानने और आचरण करने में अशक्त वर्तता हुआ जघन्यरूपसे ही ज्ञान को देखता जानता और आचरण करता है तब तक उसके भी, जघन्य भावकी अन्यथा उत्पत्ति नहीं हो सकती। इस अन्यथा उत्पत्ति नहीं हो सकती इसके द्वारा अनुमीयमान, अबुद्धि पूर्वक कलङ्गविपाकका सदभाव होनेसे पुद्गल कर्मबन्ध होता है। (समयसार गाथा १७२ आत्मख्याति टीका) यह तो स्पष्ट है कि ज्ञानी सदाकाल आस्रव भावकी भावनाके अभिप्रायसे रहित होता है, इसलिए उसके सविकल्प अवस्थामें भी राग-द्वेषरूप प्रवृत्ति अबुद्धिपूर्वक ही स्वीकार की गई है, निर्विकल्प अवस्थामें तो वह अबुद्धिपूर्वक होती ही है। फिर भी रागभाव चाहे बुद्धिपूर्वक हो और चाहे अबुद्धि पूर्वक, उसके सद्भावमें बन्ध होता ही है । इसका यहाँ विशेष विचार नहीं करना है । यहाँ तो केवल इतना ही निर्देश करना है कि ज्ञानीके ज्ञेयमें अभिप्रायपूर्वक कभी भी इष्टानिष्टबुद्धि न होनेसे वह ध्यान कालमें निर्विकल्प स्वानुभूतिसे च्युत नहीं होता। इसलिए उसके शुद्ध नयस्वरूप शुद्धोपयोगकी प्रवृत्ति बनी रहती है। दसवें अध्यायमें मोक्षतत्त्वके निरूपणके प्रसंगसे प्रथम सूत्रमें केवलज्ञानकी उत्पत्तिका निरूपण कर दूसरे सूत्र द्वारा सकारण मोक्ष तत्त्वका निरूपण किया गया है। यहाँ प्रथम सूत्रमें घातिकर्मोके नाशके क्रमको भी ध्यानमें रखा गया है और दूसरे सत्रमें संवर और निर्जरा-द्वारा समस्त कर्मोका वियुक्त होना मोक्ष है ऐसा न कहकर संवरके स्थानमें जो 'बंधहेत्वभाव' पदका प्रयोग किया है सो उस द्वारा आचार्य गद्धपिच्छने यह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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