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________________ ४३४ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ बतलाये हैं वे तेरहवें चौदहवें गुणस्थानमें असाता वेदनीयके पाये जानेवाले उदयको देखकर ही बतलाये गये हैं । वहाँ क्षुधादि ११ परीषह होते हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य नहीं है। 'एकादश जिने' यह कारणकी अपेक्षा परीषहोंका निर्देश करनेवाला सूत्र है, कार्यकी अपेक्षा परीषहोंका निर्देश करनेवाला सूत्र नहीं। इस अध्यायमें प्रसंगसे संयतोंके भेदोंका निर्देश करते हुए बतलाया है कि ये पुलाकादि नैगमादि न योंकी अपेक्षा संयत कहे गये हैं । इसका आशय यह है कि पुलाक, बकुश, कुशील, निन्थ और स्नातक इन पाँच भेदोंमेंसे निर्ग्रन्थ और स्नातक ये दोनों भाव निग्रन्थ होनेसे एकमात्र एवं भूतनयकी अपेक्षासे ही निग्रन्थ हैं । शेष तीन निर्ग्रन्थ काल भेदसे नैगमादि अनेक नयसाध्य हैं। निर्ग्रन्थ सामान्यकी अपेक्षा विवक्षा भेदसे पाँचों ही सम्यगदर्शनके साथ नग्नतारूप जिन लिंगके धारी होनेसे निग्रन्थ है यह इस कथनका अभिप्राय है। ___ एक बात यहाँ निर्जराके विषयमें भी स्पष्ट करनी है। उत्तरोत्तर असंख्यात गुणी निजराके इन दस होंमेंसे श्रावक और प्रमत्त विरतके प्रकृतमें पूर्वकी अपेक्षा जिस असंख्यात गुणी द्रव्य-कर्म निर्जराका निर्देश किया गया है वह इन दोनोंके विशद्धिकी अपेक्षा एकान्तानुवृद्धिके कालकी जाननी चाहिए क्योंकि इसके सिवाय अन्य कालमें संक्लेश और विशुद्धिके अनुसार उक्त निर्जरामें तारतम्य देखा जाता है। विशुद्धिके कालमें विशुद्धिके तारतम्यके अनुसार कभी असंख्यात गुणी, कभी संख्यात गुणी, कभी असंख्यातवाँ भाग अधिक और कभी संख्यातवाँ भाग अधिक निर्जरा होती है यहाँ पूर्व समयकी अपेक्षा अगले समयमें कितनी निर्जरा होती है इस दृष्टिसे निर्जराका यरक्रम बतलाया गया है। इस अध्यायमें ध्यानका विस्तारसे विचार करते हुए ध्याता, ध्यान, ध्येय, ध्यानका फल और ध्यानके काल इन पाँचों विषयों पर सम्यक् प्रकाश डाला गया है । ध्यानके दो भेद हैं-प्रशस्त और अप्रशस्त । यहाँ अप्रशस्त ध्यानका विचार न कर प्रशस्त ध्यानका विचार करना है। प्रशस्त ध्यानके भी दो भेद है-धर्मध्यान और शुक्लध्यान । श्रेणि आरोहणके पूर्व जो ध्यान होता है उसे धर्मध्यान कहते हैं श्रेणि और आरोहणके बाद जो ध्यान होता है उसको शुक्लध्यान संज्ञा है । इसका यह तात्पर्य है कि धर्मध्यान चौथे गुणस्थानसे प्रारम्भ होकर सातवें गुणस्थान तक होता है । साधारणतः तत्वार्थसूत्रमें धर्मध्यानके आलम्बनके प्रकार चार बतलाये है-आज्ञा, अपाय, विपाक और संस्थान । इन सभी पर दृष्टिपात कर सामान्य रूपसे यदि आलम्बनको विभक्त किया जाय तो वह दो भागोंमें विभाजित हो जाता है-एक स्वात्मा और दूसरे स्वात्मासे भिन्न अन्य प्रदार्थ । ध्यानका लक्षण करते हुए यह तो बतलाया ही गया है कि अन्य ध्यानमें अशेष विषयोंसे चित्तको परावृत्त कर किसी एक विषय पर चित्त अर्थात् उपयोगको स्थिर किया जाता है अतः आत्मज्ञानस्वरूप है, इसलिये यदि उपयोगको आत्मस्वरूपमें युक्त किया जाता है तो उपयोग स्वरूपका वेदन करनेवाला होनेसे निश्चय ध्यान कहलाता है और यदि उपयोगको विकल्पदशा पर-पदार्थमें युक्त किया जाता है तो वह स्वरूपसे भिन्न अन्य पदार्थरूप विशेषणसहित होनेके कारण व्यवहार ध्यान कहलाता है। इसमेंसे निश्चय ध्यान कर्म निर्जरा स्वरूप है, अतः कर्म निर्जराका हेतु भी है और व्यवहार ध्यान इससे विपरीत स्वभाववाला होनेसे न तो स्वयं निर्जरा स्वरूप है और न तो साक्षात् कर्म निर्जराका हेतु ही है । अन्यत्र धर्म ध्यानके जो सविकल्प और निर्विकल्प ये दो भेद दृष्टिगोचर होते हैं वे इसी अभिप्रायसे किये गये जानने चाहिये । यहाँ यह बात विशेष जाननी चाहिये की ५वें और ६४ गुणस्थानमें विकल्पके कालमें भी जो स्वभाव पर्याय होती है, उसके निमित्तसे होनेवाली कर्म निर्जरा यथावत् चालू रहती है। सामान्य नियम यह है कि जब आत्मा मोक्षमार्गके सन्मख होता है तब उसके अपने उपयोगमें मुख्य रूपसे एकमात्र आत्माका ही अवलम्बन रहता है, अन्य अशेष अवलम्बन गौण होते जाते हैं, क्योंकि मोक्षका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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