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________________ ४३२ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ कारकी गई है यह इस अध्यायके उपकार प्रकरण द्वारा सूचित किया गया है। यहाँ द्रव्यके सामान्य लक्षणमें उत्पाद व्यय और धौव्य इन तीनोंको द्रव्यके अंशरूपमें स्वीकार किया गया है। इसका अर्थ यह कि जैसे ध्रौव्यांश अन्वय पसे स्वयं सत् है उसी प्रकार अपने-अपने कालमें प्रत्येक उत्पाद और व्यय भी स्वयं सत् है । इन तीनोंमें लक्षण भेद होने पर भी वस्तुपनेसे भेद नहीं है । इसलिये अन्यके कार्यको परमें व्यवहारसे निमित्तता स्वीकार करके भी उसमें अन्यके कार्यकी यथार्थ कर्तृता आदि नहीं स्वीकारकी गई है और न की जा सकती है । छठे और सातवें अध्यायमें आस्रव तत्त्व के विवेचन के प्रसंगसे पुण्य और पाप तत्त्वका भी विवेचन किया गया है । संसारी जीवोंके पराश्रित भाव दो प्रकारके हैं शुभ और अशुभ । देव-गुरु-शास्त्रकी भक्ति तथा व्रतों का पालन करना आदि शुभ भाव हैं और पंचेन्द्रियों के विषयोंमें प्रवृत्ति तथा हिंसादि रूप कार्य अशुभ भाव हैं । इन परिणामोंके निमित्तसे योग प्रवृत्ति भी दो भागों में विभक्त हो जाती है, शुभ योग और अशुभ योग | योग को स्वयं आस्रव कहनेका यही कारण है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि जिस समय जीवके शुभ या अशुभ जैसे भाव होते हैं, योग द्वारा तदनुरूप कर्मोंका ही आस्रव होता है । छठे अध्यायमें आस्रवके भेद-प्रभेदोंका निरूपण करनेके बाद जीवके किन भावोंसे मुख्य रूपसे किस कर्मका आस्रव होता है इसका निर्देश किया गया है । आयुकर्मके आस्रवके हेतुके निर्देशके प्रसंगसे सम्यक्त्व, संयमासंयम और सराग संयमको आस्रवका हेतु बतलाया गया है । सो इस परसे यह अर्थ फलित नहीं करना चाहिए कि इससे देवायुका आस्रव होता है । किन्तु इस कथनका इतना ही प्रयोजन समझना चाहिए कि यदि उक्त विशेषताओंसे युक्त यथा सम्भव मनुष्य और तिर्यञ्च आयुबन्ध करते हैं तो सौधर्मादि सम्बन्धी आयुका ही बन्ध करते हैं । सम्यग्दर्शन आदि कुछ आयुबन्धके हेतु नहीं हैं। उनके साथ जो प्रशस्त राग है वही बन्धका हेतु है । सातवें अध्यायमें शुभ भावोंका विशेष रूपसे स्पष्टीकरण किया गया है उनमें व्रतोंकी परिगणना करते हुए हिंसादि पाँच पाप-भावोंकी आध्यात्मिक व्याख्या प्रस्तुतको गई है । आशय यह है कि प्रमाद बहुत या इच्छापूर्वक असद्विचारसे जो भी क्रियाकी जाती है उसका तो यथा योग्य हिंसादि पाँच पापोंमें अन्तर्भाव होता ही है । साथ ही बाह्य क्रियाके न करने पर भी जो अन्तरंग में मलिन परिणाम होता है उसे भी अपने-अपने प्रयोजनके अनुसार हिंसादि पाँच पाप रूप स्वीकार किया गया है इस कथन से ऐसा आशय भी फलित होता है कि अन्तरंग में मलिन परिणाम न हो, किन्तु बाह्यमें कदाचित् विपरीत क्रिया हो जाय तो मात्र वह क्रिया हिंसादि रूपसे परिगणित नहींकी जाती । आठवें अध्यायके प्रकृति बन्ध आदि चारों प्रकारके कर्मबन्ध और उनके हेतुओंका निर्देश किया गया है । बन्धके हेतु पांच हैं. मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग । इनमें कषाय और योग ये दो मुख्यतासे पर्यायार्थिक नयके विषय क्योंकि योगको निमित्तकर प्रकृतिबन्ध और प्रदेश बन्धमें विशेषता आती है तथा कषायको निमित्तकर स्थितिबन्ध और अनुभाग बन्धमें विशेषता आती है। फिर भी यहाँपर मिथ्यादर्शन, अविरति और प्रमाद आदि पाँचको जो बन्धका हेतु कहा है उसका कारण यह है कि ये पांचों द्रव्याथिकनयसे बंध सामान्य कारण हैं तथा मिथ्यादर्शनके सद्भावमें जो बन्ध होता है वह सर्वाधिक स्थिति आदिको लिये हुए होता है । अविरतिके सद्भावमें जो बन्ध होता है वह मिथ्यादर्शन के कालमें होनेवाले बन्धसे यद्यपि अल्प स्थितिवाला होता है, पर वह व्रती जीवके प्रमादके सद्भावमें होनेवाले बन्धसे अधिक स्थितिको लिये हुए होता है । कारण यह है पूर्व-पूर्वके गुणस्थानोंसे आगे-आगेके गुणस्थानोंमें संक्लेश परिणामोंकी हानि होती जाती है। और विशुद्धि बढ़ती जाती है । अशुभ प्रकृतियोंके अनुभाग बन्धकी स्थिति इससे भिन्न प्रकार की है, क्योंकि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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