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________________ तत्वार्थसूत्र और उसकी टीकाएँ इस अवसर्पिणी कालमें अन्तिम तीर्थंकर भगवान् महावीरके मोक्षलाभ करनेके बाद अनुबद्ध केवली तीन और श्रुतकेवली पाँच हुए हैं । अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहु थे । इनके काल तक अंग-अनंग श्रुत अपने मूल रूपमें आया है । इसके बाद उत्तरोत्तर बुद्धिबल और धारणाशक्तिके क्षीण होते जानेसे तथा मूल श्रुतके प्रायः पुस्तकारूढ़ किए जाने की परिपाटी न होनेसे क्रमशः वह विच्छिन्न होता गया है । इस प्रकार एक ओर जहाँ मूल श्रुतका अभाव होता जा रहा था वहाँ दूसरी ओर श्रुत परम्पराको अक्षुण्ण बनाये रखनेके लिए और उसका सीधा सम्बन्ध भगवान् महावीरकी दिव्यध्वनिसे बनाये रखनेके लिए जो अनेक प्रयत्न हुए हैं उनमेंसे अन्यतम प्रयत्न तत्वार्थसूत्रकी रचना है । यह एक ऐसी प्रथम उच्च कोटिकी रचना है जब जैन परम्परामें जैन साहित्यकी मूल भाषा प्राकृतका स्थान धीरे-धीरे संस्कृत भाषा लेने लगी थी, इसके संस्कृत भाषामें लिपिबद्ध होनेका यही कारण है। १. नाम इसमें सम्यग्दर्शनके विषयरूपसे जीवादि सात तत्त्वोंका विवेचन मुख्य रूपसे किया गया है, इसलिए इसकी मूल संज्ञा 'तत्त्वार्थ' है । पूर्व कालमें इसपर जितने भी वृत्ति, भाष्य और टीका ग्रन्थ लिखे गये हैं उन सबमें प्रायः इसी नामको स्वीकार किया गया है । इसकी रचना सूत्र शैलीमें हुई है, इसलिए अनेक आचार्यों ने 'तत्त्वार्थसूत्र' इस नामसे भी इसका उल्लेख किया है। श्वेताम्बर परम्परामें इसके मूल सूत्रोंमें कुछ परिवर्तन करके इसपर वाचक उमास्वातिने लगभग सातवीं शताब्दिके उत्तरार्धमें या ८वीं शताब्दिके पूर्वार्धमें तत्त्वार्थाधिगम नामके एक लघु ग्रन्थकी रचनाकी', जो उत्तर कालमें तत्त्वार्थाधिगम भाष्य इस नामसे प्रसिद्ध हुआ । श्वेताम्बर परम्परामें इसे तत्त्वार्थाधिगम सूत्र इस नामसे प्रसिद्धि मिलनेका यही कारण है । किन्तु वह परम्परा भी इसके 'तत्त्वार्थ' और 'तत्त्वार्थसूत्र' इन पुराने नामोंका सर्वशः विस्मृत न कर सकी । उत्तर कालमें तो प्रायः अनेक श्वेताम्बर टीका-टिपणीकाएँ द्वारा एकमात्र 'तत्त्वार्थसूत्र' इस नामको ही एक स्वरसे स्वीकार कर लिया गया है। श्रद्धालु जनतामें इसका एक नाम मोक्षशास्त्र भी प्रचलित है । इस नामका उल्लेख इसके प्राचीन टीकाकारोंने तो नहीं किया है । किन्तु इसका प्रारम्भ मोक्षमार्गकी प्ररूपणासे होकर इसका अन्त मोक्षकी प्ररूपणाके साथ होता है । जान पड़ता है कि एकमात्र इसी कारणसे यह नाम प्रसिद्धि में आया है। १. ग्रन्थका परिमाण वर्तमानमें तत्त्वार्थसूत्रके दो पाठ (दिगम्बर और श्वेताम्बर परम्परा मान्य) उपलब्ध होनेसे इसके परिमाणके विषयमें ऊहापोह होता आया है। किन्तु जैसा कि आगे चलकर बतलानेवाले हैं, सर्वार्थसिद्धिमान्य पाठ ही मूल १. सर्वार्थसिद्धि, तत्त्वार्थवातिक, तत्वार्थश्लोकवार्तिक आदिके प्रत्येक अध्यायकी समाप्ति सूचक पुष्पिका आदि । २. जीवस्थान कालानुयोग द्वार, पृ० ३१६ । ३. प्रस्तावना, सर्वार्थसिद्धि, पृ० ७२ से ।। ४. तत्त्वार्थाधिगम भाष्य, उत्थानिका, श्लोक २ । ५. सिद्धसेनगणि टीका, अध्याय १ और ६ की अन्तिम पुष्पिका । ६. प्रज्ञाचक्षु पं० सुखलालजी द्वारा अनुदित तत्त्वार्थसूत्र । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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