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________________ ४२४ : सिद्धान्ताचार्य पं० फलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ थोड़ी देरके लिये उक्त (श्वे.) मनिजीने जो अभिप्राय फलित किया है यदि उसीको विचारके लिए ठीक मान लिया जाता है तो जिस गति आदिमें पूर्वमें जिन भावोंके द्वारा बाँधे गये कर्म वर्तमानमें क्षपकके विकल्पसे बतलाये हैं, वे भाव भी वर्तमानमें क्षपकके विकल्पसे मानने पड़ेंगे। उदाहरणार्थ पहले सम्यग्मिथ्यात्वमें बाँधे गये कर्म वर्तमानमें जिस क्षपकके विकल्पसे बतलाये हैं तो क्या उस क्षपकके वर्तमानमें विकल्पसे सम्यग्मिथ्यात्व भी मानना पड़ेगा। यदि कहो कि नहीं, तो सम्यग्मिथ्यात्वमें बंधे हए जो कर्म सत्तारूपसे वर्तमानमें क्षपकके विकल्पसे होते हुए भी अतीत कालमें उन कोंके बन्धके समय सम्यग्मिथ्यात्व भाव था इतना ही आशय जैसे सम्यग्मिथ्यात्व भावके विषयमें लिखा जाता है उसी प्रकार सर्वलिंगोंके विषयमें भी यह आशय यहाँ लेना चाहिए। हम यह स्वीकार करते हैं कि जैसे अतीत कालमें अन्य लिंगोंमें बाँधे गये कर्म वर्तमानमें क्षपकके विकल्पसे बन जाते हैं वैसे ही अतीत कालमें जिन लिंगमें बाँधे गये कर्मोके वर्तमानमें क्षपकके विकल्पसे स्वीकार करने में कोई प्रत्यवाय नहीं दिखाई देता । कारण संयमभावका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम अर्धपुद्गल परिवर्तनप्रमाण और जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्तप्रमाण बतलाया है । यथाः संजमाणुवादेण संजद-सामाइय-च्छेदीवट्ठावणसुद्धिसंजद-परिहारसुद्धि संजद-संजदासंजद दाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ॥१०८।। जहण्ण अंतोमुहुत्तं ।।१०९।। उक्कस्सेण अद्ध पोग्गल-परियदं देसूणं ॥११०॥-खुद्दाबंध पृ० ३२१-३२२। यहाँ जयधवला टीकाकारने उक्त सूत्रकी व्याख्या करते हुए 'णिग्गंथवदिरित्तसेसाणं' यह लिखकर 'सर्वलिंग' पदसे निर्ग्रन्थ लिंगके अतिरिक्त जो शेष सविकार सर्व लिंगोंका ग्रहण किया है वह उन्होंने क्षपकश्रेणिपर आरोहण करनेवाला जीव अन्य लिंगवाला न होकर वर्तमानमें निर्ग्रन्थ ही होता है और इस अपेक्षासे उसके निग्रन्थ अवस्थामें बाँधे गये कर्म भजनीय न होकर नियमसे पाये जाते है। यह दिखलानेके लिए ही किया है, क्योंकि जो जीव अन्तरंगमें निर्ग्रन्थ होता है। किन्तु इन दोनों के परस्पर अविनाभावको न स्वीकार कर जो श्वेताम्बर सम्प्रदायवाले इच्छानुसार वस्त्र-पात्रादि सहित अन्य वेशमें रहते हुए भी वर्तमानमें क्षपकश्रेणि आदि पर आरोहण करता या रत्नत्रयस्वरूप मुनि लिंगकी प्राप्ति मानते हैं, उनके उस मतका निषेध करनेके लिए जयधवला टीकाकारने 'णिग्गंथवदिरित्तसेसाणं' पदकी योजना की है। विचार कर देखा जाय तो उनके इस निर्देशमें किसी भी प्रकारकी साम्प्रदायिकताको गन्ध न होकर वस्तुस्वरूपका उद्घाटन मात्र है, क्योंकि भीतरसे जीवन में निर्ग्रन्थ वही हो सकता है जो वस्त्र-पात्रादिका बुद्धिपूर्वक त्यागकर बाह्यमें जिनमुद्राको पहले ही धारण कर लेता है। कोई बुद्धिपूर्वक वस्त्र-पात्र आदिको स्वीकार करे, उन्हें रखे, उनकी सम्हाल भी करे फिर भी स्वयंको वस्त्र-पात्र आदि सर्व परिग्रहका त्यागी बतलावे, इसे मात्र जीवनकी विडम्बना करनेवाला ही कहना चाहिए। अतः वर्तमानमें जिसने वस्त्र-पात्रादि सर्व परिग्रहका त्याग कर निर्ग्रन्थ लिंग स्वीकार किया है वही क्षपक हो सकता है और ऐसे क्षपकके निर्ग्रन्थ लिंग ग्रहण करनेके समयसे लेकर बाँधे गये कर्म सत्तामें अवश्य पाये जाते हैं यह दिखलानेके लिये ही श्री जयधवला टीकाकारने अपनी टीकामें 'सर्व लिंग' पदका अर्थ 'निर्ग्रन्थ लिंग व्यतिरिक्त अन्य सब लिंग' किया है जो 'व्याख्यानतो विशेषप्रतिपत्तिः ।' इस नीतिवचनको अनुसरण करनेवाला होनेसे उपयुक्त ही है । दूसरा उल्लेख है-२४. 'णेगम-संगह-ववहार सव्वे इच्छंति । २५. उजुसुदो ठवणवज्जे । (क. प्रा. पृ. १७) इसका व्याख्यान करते हुए यह स्पष्ट किया गया है कि नैगम, संग्रह और व्यवहार ये तीन द्रव्यार्थिक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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