SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 454
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कषायप्राभृत दिगम्बर आचार्योंकी ही कृति है श्वेताम्बर-मुनि श्री गुणरत्न विजयजीने कर्मसाहित्य तथा अन्य कतिपय विषयोंके अनेक ग्रंथोंकी रचना की है। उनमेंसे एक खवगसेढी ग्रन्थ है। इसकी रचनामें अन्य ग्रंथोंके समान कषायप्राभूत और उसकी चूणिका भरपूर उपयोग हुआ है । वस्तुतः श्वेताम्बर परम्परामें ऐसा कोई एक अन्य ग्रन्थ नहीं है जिसमें क्षपकश्रेणीका सांगोपांग विवेचन उपलब्ध होता हो। श्री मुनि गणरत्नविजयजीने अपने सम्पादकीयमें इस तथ्यको स्वयं इन शब्दोंमें स्वीकार किया है समाप्त थयावाद क्षपकश्रेणीने विषय संस्कृतमा गद्यरूपे लखवो शरूकों । ४थी ५ हजार श्लोक प्रमाण लखाण थयाबाद मने विचार आव्यो के जुदा ग्रंथोंमां छुटी छपाई वर्णवायेली क्षपक श्रेणी व्यवस्थित कोई एक ग्रंथमा जोवामा आवती नथी। जैनशासनमा महत्वनी गणती 'क्षपक श्रेणी' ना जुदा ग्रन्थोंमा संग्रहीत विषयनो प्राकृतभाषामा स्वतन्त्र ग्रन्थ तैयार थाय, तो ते मोक्षाभिलाषी भव्यात्माओंने घणो लाभदायी बने। उनके इस वक्तव्यसे स्पष्ट ज्ञान होता है कि इस ग्रंथके प्रणयनमें जहाँ उन्हें कषायप्राभृत और उसकी चूणिका भरपूर सहारा लेना पड़ा, वहाँ उनके सहयोगी तथा प्रस्तावना लेखक श्री श्वे० मुनि हेमचन्द्रविजयजी कषायप्राभृत और उसकी चूर्णिको अपने मनगढन्त तर्कों द्वारा श्वेताम्बर परम्पराका सिद्ध करनेका लोभ संवरण न कर सके । आगे हम उनके उन कल्पित तर्कों पर संक्षेपमें क्रमसे विचार करेंगे, जिनके आधारसे उन्होंने इन दोनोंको श्वेताम्बर परम्पराका सिद्ध करनेका असफल प्रयत्न किया है। ___उनमें भी सर्वप्रथम हम मूल कषायप्राभृतके ग्रंथ परिमाण पर विचार करेंगे, क्योंकि श्वे. मुनि हेमचन्द्रविजयजीने अपनो प्रस्तावना ८ पृष्ठ. २९में कषायप्राभृतके पन्द्रह अधिकारों में विभक्त १८० गाथाओंके अतिरिक्त शेष ५३ गाथाओंके प्रक्षिप्त होनेकी सम्भावना व्यक्तकी है। किन्त उसके चणि सूत्र करनेसे विदित होता है कि आचार्य श्री यतिवृषभके समक्ष पन्द्रह अर्थाधिकारोंमें विभक्त १८० स के समान कषायप्राभूतके अंगरूपसे उक्त ५३ सूत्र गाथायें भी रही है। इन पर कहीं उन्होंने चूर्णिसूत्रोंकी रचनाकी है और कहीं उन्हें प्रकरणके अनुसार सूत्ररूपमें स्वीकार किया है। जिनके विषयमें श्वे० मुनि हेमचन्द्र जीने प्रक्षिप्त होनेकी सम्भावना व्यक्तकी है उनमेंसे 'पुन्वम्मि पंचमम्मि दु' यह प्रथम सूत्र गाथा है जो ग्रन्थके नाम निर्देशके साथ उसकी प्रामाणिकताको सूचित करती है। इस पर चूणिसूत्र है णाणप्पवादस्स पुव्वस्स दसमस्स वत्थुस्स तदियस्स पाहुडस्स' इत्यादि । अब यदि इसे कषायप्राभूतकी मूलगाथा नहीं स्वीकार किया जाता है तो (१) एक तो ग्रंथका नामनिर्देश आदि किये बिना ग्रन्थके १५ अर्थाधिकारोंसे कुछका निर्देश करनेवाली नं० १३ को 'पेज्ज-दोस विहत्ती' इत्यादि सूत्र गाथासे हमें ग्रन्थका प्रारम्भ मानने के लिए बाध्य होना पड़ता है जो संगत प्रतीत नहीं होता। (२) दूसरे उक्त प्रथम गाथाके अभावमें नं० १३की उक्त सूत्रगाथाके पूर्व चूणि सूत्रों द्वारा पाँच प्रकारके उपक्रमके साथ ‘अत्थाहियारो पण्णारसविहो' इस प्रकारका निर्देश भी संगत प्रतीत नहीं होता, क्योंकि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy