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________________ चतुर्थ खण्ड : ४११ अब हम देखें कि ये तीनों जिस रूपमें उपलब्ध होती है उनका प्रारम्भिक रूप क्या रहा होगा। इसके लिए हमने तीनों निसईका स्वयं जानकर अवलोकन किया है। यह तो सभी कहते हैं कि प्रारम्भमें तीनों स्थानों पर मात्र एक-एक छतरी थी। उसे केन्द्र में रखकर जो कुछ भी निर्माण हुआ है वह बादकी रचना है । पर उनके इस कथनकी पुष्टि कैसे हो इसके लिए हमने तीनों निसई धर्म स्थानोंका बारीकीसे अवलोकन किया । खुरई, बासौदा, मल्हारगढ़ निसई और सिरोंजके चैत्यालयोंमें स्थित शास्त्र भण्डारोंकी छानबीन भी की। फलस्वरूप हमें उनमें जो प्रमाण मिले है उनमेंसे मुख्य है : (१) धूसरपुरा वासोधा दि० जैन चैत्यालयसे प्राप्त एक गुटकामें लिपिबद्ध हुए भयखिपनिक ममल पाहड ग्रन्थके अन्तमें पाई जानेवाली प्रशस्ति । (२) प्राचीन सम्मति रजिस्टर : प्रथम प्रमाण इस प्रकार है नं० ३१९८ इति भयखिपनिक ममलपाइड ग्रन्थ स्वामी तारण-तरन-विरचितं एम उत्थनिता । संवतु सोलहस १६८० वर्षे फागुनमासे सुकलपखै फागुन सुदी दसमी बुधवासरे शास्त्र लिखितं भटगंगाधर सीरोंजस्थाने साह ममला तस्य पुत्र रैनचन्द चिरंजीव कल चिरंजीव जिनदास जिरंजीव सुभं भवतु मगलं ददाति पुस्तकं लिखितं परोपकार नारथं पांडे सुमति चेताले प्रतिष्ठिनं जादिसं पुस्तकं द्रष्टवा ताऊसं लिखितं मम ॥ जदि सुध असुधंवा लेखक दोष न दीपते मनता रये तैल रखते ॥ रखे सिलिबन्धनं ॥ मूर्ख हस्ते न दातव्यं एवं वदति पुस्तिकः ॥ सुभमस्तु । यह विक्रम संवत् १९८० में लिखित भयखिपनिक ममलपाहड ग्रन्थके अन्तमें पाई जानेवाली प्रशस्ति है। इससे इस बातका पता तो अवश्य लगता है कि फाल्गन शक्ल १०वि० सं० १६८० के पूर्व हो सिरोंजम चैत्यालयकी स्थापना हो गई थी। पर इससे किसी भी रिसईके स्वरूप पर प्रकाश नहीं पड़ता। अधिकसे अधिक इस आधार पर यह अनुमान अवश्य ही किया जा सकता है कि सिरोंजमें जब भी चैत्यालयकी स्थापना हुई होगी इसके पूर्व ही सेमरखेडीमें किसी न किसी रूपमें निसईजीकी स्थापना हो गई होगी। साथ ही इससे यह भी अनुमान किया जा सकता है कि सेमरखेड़ीमें जो निसई निर्मित हुई होगी वह मल्हारगढ़के नानिदूर नानिसन्निकट समाधि स्थानके रूपमके निर्मित पाई जानेवाली निसईके अनुरूप ही बनी होगी। इसलिए मुख्य रूपमें यह विचारणीय हो जाता है कि मल्हारगढ़के पास समाधि स्थानपर जिस निसईका निर्माण हुआ था उसका निर्णय होनेपर शेष दो निसईयोंके विकासको प्रक्रियाको सुनिश्चित करने में आसानी हो जायगी। इसके लिए हमने बहुत छानबीन की। मल्हारगढ़की वर्तमान निसईका हमने बारीकीसे अवलोकन भी किया। पर उसमें इतना रूपान्तर हो गया है कि उसे देखकर मल निसईके स्वरूपके विषयमें कुछ निर्णय करना सम्भव न हो सका । मूल रूप क्या रहा होगा यह कैसे समझा जाय इस उलझनमें थे ही कि इतने में शास्त्रागारका अवलोकन करते समय हमारी नजर एक पुराने रजिस्टर पर पड़ गई। यह सम्मति रजिस्टर है। इसका उल्लेख हम क्रमांक दो में कर ही आये हैं। यह बहुत ही जीर्ण-शीर्ण अवस्थामें है, इस कारण इसके प्रारम्भिक कुछ पन्नोंके नष्ट हो जानेसे नहीं मालूम कि कितने इतिहास पर पानी फिर गया होगा फिर भी रजिस्टरका जो भाग शेष बच गया है उससे निसईजीके पुराने इतिहासको समझनेमें बहुत कुछ आसानी हो गई। आगे उसके अनुसार निसईके इतिहास पर प्रकाश डाला जाता है : "समाधि स्थानस्वरूप अतिशय क्षेत्र निसई जी" (१) स्वामीजीके समाधिस्थान पर स्मारक स्वरूप एक छतरी प्रारम्भमें ही बनाई गई थी। उस पर सिरपुर (खानदेश) के निवासी श्री डा० लीलाचन्द व मदनलाल मेहन्त (मनीम) के पूर्वजोंने लगभग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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