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________________ चतुर्थखण्ड ४०७ वाणीको सबके अन्त में रखना उचित प्रतीत होता है, कारण कि उसमें कुछ ऐसे वचन भी संग्रहीत किये गये हैं जिन्हें स्वामीजी के अन्तिम उद्गारके रूपमें स्वीकार किया जा सकता है । इससे उसका छद्मस्थवाणी यह नामकरण भी सार्थक सिद्ध हो जाता है, क्योंकि उसके द्वारा स्वामीजीसे सम्बन्धित लगभग पूरे इतिहासपर प्रकाश पड़ता है । उसमें प्रायः उन सभी नामों और ग्रामोंके नामोंका संकलन हुआ है जो उनसे लाभान्वित हुए हैं । फिर भी जो कुछ नाम छूट गये या उनके धार्मिक प्रचार में सहायक रहे उन्हें छद्मस्थवाणीमें संकलित कर दिया गया है । अब शेष रहे ज्ञानपिण्डपटिका के साथ चार ग्रन्थ सो उन्हें १० खातिका विशेष, ११ सिद्धिस्वभाव, १२ शून्यस्वभाव और १३ ज्ञानपिण्डपडिका इस क्रमसे रखना उपयुक्त होगा। यह क्रम हमने इसलिए स्वीकार किया है, क्योंकि उत्तरोत्तर स्वामी जी धर्म प्रचार आदि सम्बन्धी विकल्पोंको गौण कर आत्मभावनाकी ओर विशेष रूपसे झुकते गये होंगे और इसलिए यह माना जा सकता है कि सिद्धिस्वभाव और शून्यस्वभाव यह उनके अन्तिम उच्छ्वासके रूपमें लिपिबद्ध हुए होंगे। - ठिकानेसार : जैसा कि हम पहले लिख आये हैं जो तीन ठिकानेसार हमारे सामने हैं उनमें उक्त चौदह ग्रन्थों को पाँच मनो (मनियों) में विभाजित किया गया है- आचारमत विचारमत, ममलमत और केवलमत (१) आचारमत-श्रावकाचार (२) विचारमत मालारोहण, पण्डितपूजा और कमलबसीसी (३) सारमत-ज्ञानसमुच्चयसार उपदेशशुद्धसार और त्रिभंगीसार ( ४ ) ममलमत-ममलपाहुड और चौबीसठाणा तथा (५) केवलमन छद्यस्यवाणी, नाममाला, खतिका विशेष सिद्धिस्वभाव और शून्यस्वभाव । ठिकानेसार में मसके स्थानमें मतिशब्दका भी प्रयोग हुआ है। यद्यपि पहले हमने इसपर विचार नहीं किया था कि मन शब्दका प्रयोग किया या मति शब्द का । लगता तो यही है कि उसने मन शब्द न रख कर मति शब्द रख कर ही यह विभाग किया होगा, क्योंकि स्वरचित ग्रन्थोंमें जिन विषयोंका संकलन हुआ है वे अलग-अलग मतों में विभक्त हों ऐसा नहीं है हाँ नय विशेषको ध्यान में रखकर अवश्य ही कहा जा सकता है । उदाहरणार्थ श्रावकाचार यणः चरणानुयोगका ग्रन्थ है, इसलिए यह अध्यात्मगर्भं व्यवहार नयकी मुख्यतासे लिखा गया है । पण्डितपूजा यह ज्ञानीव्यवहार - निश्चय उभयरूप पूजा ठिकावसारेक लेख ने किस विधि से करे इसका प्रतिपादक है, इसलिए वह व्यवहारगर्भ निश्चयनयी मुख्यतासे लिपिबद्ध हुआ है। ये उदाहरण मात्र है, अतः अन्य ग्रन्थोंका भी इसी न्यायसे विचार कर लेना चाहिये। इसलिए ऐसा लगता है कि मूल ठिकानेसारके लेखकने स्वामी जी द्वारा रचित ग्रन्थोंको नय विशेषकी दृष्टिसे विभक्त करते समय मति शब्द ही रखा होगा । मन शब्दकी अपेक्षा मति शब्द नया शब्दके अधिक सन्निकट है । तदनुसार यहाँ ऐसा अर्थ लेना चाहिये कि धर्माचरणमें तत्पर श्रावक या भाविकाका बाह्य आचार कैसा हो इसका निर्देश स्वामीजीने धावकाचारमें किया है, इसलिए ठिकानेसारके लेखकने उसकी परिगणना आचारगति अर्थात् व्यवहार नयके विषय रूपमें दी है। इसी प्रकार सारमति, विचारमति, ममलमति और केवलमतिके विषय में भी विचार कर लेना चाहिए अथवा नयके अर्थमें मत शब्दको स्वीकार कर लेनेपर उनके अर्थ फलित हों जाता है । प्रकृतमें सार पदका अर्थ है हितकारी या उपादेय । हितकारी या उपादेय एक आत्मा है क्योंकि अन्य जितनी प्रकृतियाँ हैं या विकल्प परम्परा है परमार्थसे वह संसारकी ही प्रयोजक है यह जानकर जो आत्माकी शरण लेता है वही कल्याणका भागी होता है इस प्रकार इस दृष्टिको सामने रखकर स्वामीजीने व्यावहारिक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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