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________________ प्रथम खण्ड : ३३ मेरा उन्हें शत शत प्रणाम .डॉ० रमेशचन्द जैन, बिजनौर दिगम्बर जैनोंमें मूल आगमके नाम पर षट्खण्डागम तथा कषायपाहुड जैसे ग्रन्थोंको ही मान्यता प्राप्त है। इन ग्रन्थों पर हमारे महान् आचार्योने धवल, महाधवल तथा जयधवल नामकी जो टीकायें लिखीं थीं, वह केवल दर्शनार्थियोंके दर्शनकी वस्तु थीं। इन ग्रन्थों पर जिन महान् मनीषियोंने कार्य कर इनके अनुवाद और मूल पाठ जनसाधारण और विद्वानोंको सुलभ कराये, उनमें श्रद्धेय पंडितजीका नाम अग्रगण्य है। पूज्य पंडितजीकी विद्वत्ताकी थाह पाना हम जैसे अल्पज्ञ लोगोंके लिए बड़ा कठिन है। विद्वत्ता और सरलताका मणिकाञ्चन संयोग पण्डितजीमें उपस्थित है। उनसे मिलने पर ऐसी आत्मीयता जाग्रत होती है कि व्यक्ति सदा सदाके लिए उनका हो जाता है । साधनहीन छात्रों और व्यक्तियोंको उचित सहायता और मार्गदर्शन देना उनकी चर्याक प्रमुख अङ्ग हैं। जैसे एक बालक अपने पिताके गुणोंका सम्पूर्ण वर्णन नहीं कर सकता है, केवल उनको अनुभूति कर सकता है उसी प्रकार श्रद्धेय पण्डितजीके गुणोंकी अनुभूति ही की जा सकती है, समग्र रूपसे उनका वर्णन करनेका विचार सूर्यको दीपक दिखाने जैसा है। उनकी गुणगरिमा मेरे लिए प्रकाश स्तम्भ है। आध्यात्मिक सत्पुरुष कानजी स्वामीके सम्पर्कमें रहकर आपने हजारों लोगोंको आध्यात्मिक चेतना प्रदान की है। आचार्य कुन्दकुन्द अमृतचन्द्राचार्य प्रभृति आध्यात्मिक सन्तोंके पण्डित जी सफल व्याख्याता हैं। पण्डितजी द्वारा लिखे हुए ग्रन्थ और टीकायें सहस्राधिक वर्षों तक उनकी कीर्तिको अक्षुण्ण रखनेमें समर्थ हैं। साठसे अधिक वर्षों तक जिनवाणोकी अनवरत सेवा करने वाले जैन समाजके वे अद्वितीय विद्वान् है । अभिनन्दन ग्रन्थोंकी परम्परा उनका अभिनन्दन कर स्वयं अभिनन्दित हो रही है । मेरा उन्हें शत शत प्रणाम स्वीकृत हो। अनुपम विद्वत्ताके धनी • डॉ० फूलचन्द्र जैन प्रेमी, वाराणसी पूज्य पंडितजी उन विरले उच्चकोटिके सिद्धान्तवेत्ता विद्वानोंमेंसे हैं जिन्होंने किसी निश्चित जीविका बिना ही अपने सम्पूर्ण जीवनका एक मात्र लक्ष्य जैन साहित्यकी सेवा बनाया है। इस वृद्धावस्था में भी इस लक्ष्यमें युवकों जैसे उत्साहके साथ संलग्न है। उनका जुझारू और जीवट व्यक्तित्व एक अद्वितीय प्रेरणा प्रदान करता है । जबमें श्री स्याद्वाद महाविद्यालयमें १९६६के आसपास पढ़ने आया तभीसे उनका निकट सानिध्य और मार्गदर्शन प्राप्तिका सौभाग्य रहा है । लाडनंसे पुनः बनारस आने के बादसे और भी निकटता प्राप्त रही। आपसे षट्खण्डागम और कसायपाहड जैसे महान् सिद्धान्त ग्रन्थों एवं इनकी टीकाओंके कुछ भाग पढ़नेका भी सौभाग्य मिला । आत्मानुशासन ग्रन्थका जब पंडितजीने सम्पादन प्रारम्भ किया तब मुझं उसमें सहयोगको कहा। मैंने इसे अपना अहोभाग्य माना और उनके साथ इस कायमें लगा । इस बीच और अन्य ग्रन्थोंके अध्ययनके दौरान देखा कि पूज्य पंडितजीके मनमें यह बराबर लगा रहता है कि हमारे पूर्वाचार्योंके इस अपूर्व ज्ञानको लम्बे काल तक कैसे सुरक्षित रखा जाय ताकि इसकी परम्परा विकसित होती रहे और इसके आधार पर मुमक्ष आत्म कल्याण करते रहें। जैसे धर्म-दर्शन-न्याय-सिद्धान्त-इतिहास आदि किसी भी विषय पर जब कभी पूज्य पंडितजीसे प्रश्न करते वे सप्रमाण और सधे हुए शब्दोंमें उत्तर देते । उनका कहना है कि हमारे आगम ग्रन्थोंमें आचार्योंने सब कुछ लिखा है फिर बिना आगम प्रमाणके मैं बात करना और सुनना पसन्द नहीं करता। इस अभिनन्दनके अवसर पर मेरी हार्दिक भावना है कि अनुपम विद्वत्ताके धनी पितातुल्य स्नेह देने वाले स्वाभिमानी पज्य पंडितजीका लम्बे समय तक साक्षात मार्गदर्शन मिलता रहे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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