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________________ ३९८ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ तीसरे व्यक्तिके रूपमें स्वयं स्वामीजीको तो गिना नहीं जा सकता, क्योंकि स्वामीजीका जन्म वीर नि०संवत् १९३३ से ४२ वर्ष बाद हुआ था । अत: मालम नड़ता है कि छदमस्थवाणीके उक्त उल्लेखमें किन्हीं महत्वपूर्ण अन्य तीनका उल्लेख किया गया होना चाहिये । इस विषयमें अनुसन्धान होना चाहिये । इससे अनेक ऐतिहासिक मुथ्योंपर प्रकाश पड़ना सम्भव है। मेरी रायमें तो वे तीन महान विभति ईडरके प्रथम भट्टारक दिल्ली जयपुरके प्रथम भट्टारक और गुजरात और बुन्देलखण्डके प्रथम भट्रारक देवेन्द्रकीर्ति ही होने चाहिये । ये तीनों भट्टारक मूलसंघ कुंदकुंद आम्नायके अनुसार सरस्वतीगच्छ बलात्कारगणके अन्तर्गत क्रमसे ईडर, गुजरात-बुन्देल खण्ड और दिल्ली-जयपुर पट्ट की स्थापना करने वाले थे । स्वामीजीका जन्म अगहन सुदी ७ गुरुवार वि० संवत् १५०५ को हुआ था। इसका निर्णय छद्मस्थ । उससे उनके माता-पिताका नाम क्या था ? जाति, कुल, गाँव क्या था ? किस नगरी में उन्होंने जन्म लिया था ? इत्यादि बातोंपर कोई विशेष प्रकाश नहीं पड़ता। एक आध्यात्मिक पुरुष अपन वर्तमान जीवनकी लौकिक घटनाओं आदि पर लिखता बैठे यह सम्भव भी नहीं है। अतः इन बातोंके निर्णयके लिए 'निर्वाण हुण्डी' रचना ही एकमात्र सहारा है । इसकी भाषा मिली-जुली है। उसमें स्वामीजीकी माताका नाम 'वीरश्री' और पिताका नाम 'गढ़ा साह बतलाया है। उसमें यह भी बतलाया है कि वे जातिसे गाहामूरी वासल्ल गोत्र परवार (पौरपट) थे । जन्म नगरीका उल्लेख करते हुए लिखा है कि वे पुष्पावती नगरीम जन्मे थे । इस विषयमें स्व० ब्रह्मचारी शीतलाप्रसादजीको छोड़कर अन्य सभोका मत है कि कटनीके पास 'बिलहरी' ग्राम ही पुष्पावती है। पूर्व कालमें पुरातत्त्वकी दृष्टिसे यह ऐतिहासिक स्थान रहा है, इसलिए पुष्पावतीका नाम बदलकर उत्तरकालमें बिलहरी हो गया है, यह बहुत कुछ सम्भव है। निर्वाण हुण्डीसे इन बातोंके सिवाय उनके शेष जीवनपर उल्लेखनीय प्रकाश नहीं पड़ता। हाँ, छद्मस्थवाणी (प्रथम अध्याय) में कुछ वचन ऐसे अवश्य ही लिपिबद्ध हए हैं जिनसे उनके जीवनकी खास-खास घटनाओंपर प्रकाश पड़ना सम्भव है । इन वचनोंका सम्बन्ध स्वामीजीके जीवनसे होना चाहिए। यह इसलिए भी ठीक लगता है, क्योंकि इन वचनोंके बाद उनके सं० १९७२ में शरीर त्यागका उल्लेख किया गया है। वे समन वचन इस प्रकार हैं सहजादि मुक्त भेष उत्पन्न ॥१६|| मिथ्याविलि वर्ष ग्यारह ॥१७।। समय मिथ्या विलि वर्ष दस ॥१८॥ प्रकृति मिथ्या विलि वर्ष नौ ।।१९।। माया विलि वर्ष सात ।।२०॥ मिथ्या विलि वर्ष सात ।।२१।। निदान विलि वर्ष सात ॥२२॥ आज्ञा उत्पन्न वर्ष दो ॥२३।। वेदक उत्पन्न वर्ष दो ॥२४|| उपशम उत्पन्न वर्ष तीन ॥२५।। क्ष्यायिक उत्पन्न वर्ष दो ॥२६।। एवं उत्पन्न वर्ष नौ ॥२७॥ उत्पन्न मेष उवसग्ग सहन वर्ष छह मास, पाँच दिन, पंच दस, पन्द्रह सौ बहत्तर गत तिलक । ___ सहज ही नग्न (बाल) रूपमें स्वामीजीका जन्म हुआ ॥१६॥ ११ वर्षकी उम्रमें मिथ्यात्व (गृहीत मिथ्यात्वका) विलय हुआ ॥१७। उसके बाद १० वर्ष में समय (जीवादि पदार्थ या आत्मा विषयक) मिथ्यात्वका विलय हुआ ॥१८॥ उसके बाद नौ वर्ष में प्रकृति (आन्तरिक रुचि विषयक) मिथ्यात्वका विलय हुआ ॥१९॥ उसके बाद २१ वर्ष में क्रमसे माया, मिथ्यात्व और निदान इन तीन शल्योंका विलय हुआ ॥२०-२२॥ उसके बाद गृहीत व्रतोंको उत्तरोत्तर जिनाज्ञाके अनुसार पालन करते हुए अपने परिणामोंमें मुनिपदके योग्य विशुद्धि उत्पन्न की ।।२३-२६॥ उसके बाद उपसर्गोको सहन करनेके साथ छह वर्ष, पाँच माह और पन्द्रह दिन तक 'उत्पन्न भेष' अर्थात् मुनिपदका पालन करते हए वि० सं० १५७२में इहलीला समाप्त की। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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