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________________ ३९४ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ प्रकारके योग द्वारा तीन प्रकार के मिथ्यात्वको जीतना चाहिये, अव्रतभाव और असत्यरूप पर्यायकी गलाना चाहिये, कुशानको गलाना चाहिये तथा सब प्रकारके कर्मोंको भी गलाना चाहिये ||४|| चेतन आत्मानन्दस्वरूप है आनन्दस्वरूप है और सहजानन्दस्वरूप है। इसके आलम्बनसे संसार पर्यायका अन्त कर देना चाहिये । अपने सहज ज्ञान द्वारा ज्ञान ही उपासना करने योग्य है। समस्त कमका क्षय ज्ञानसे ही होता है ॥५॥ कर्मोंका स्वभाव ही क्षय करने योग्य है || ६ || जिसकी दष्टि उत्पाद - व्यय में समभावरूप है और चेतनभावसे युक्त है उसके उसी दृष्टिसे तीनों प्रकारके कर्मोका बन्ध गल कर विलीन हो जाता है ।। ७ । मन स्वभावसे क्षय करने योग्य है, संसारकी परिपाटी भी स्वभावसे क्षय करने योग्य है, जानवलसे विशुद्ध हुई निर्मल उपासना कर्मो का क्षय करनेमें समर्थ है ||८|| लोकका अनुरंजन करनेवाले रागभावसे रहित शरीरको अनुरंजन करनेवाले द्वेषभावसे मुक्त और मनको रंजायमान करनेवाले तीन प्रकारके गारबसे रहित होने पर तीन प्रकारका वैराग्य उत्पन्न होता है || ९ || दर्शनमोहरूपी अंधकारसे रहित और राग-द्वेष तथा पंचेन्द्रियोंके विषयोंसे रहित आत्माका निर्मल स्वभाव उत्पन्न हुआ वह अनन्त चतुष्टयको प्राप्त करने में समर्थ है ॥ १०॥ रत्नत्रय से ही शुद्ध आत्माका दर्शन है, पाँचों ज्ञानोंमें पंचम ज्ञान ही परम इष्ट है तथा पंचाचाररूप सम्यकुचारित्र है। यही सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यचारित्र है ।।११।। यही सम्यग्दर्शन- ज्ञान चारित्रस्वरूप है वही देवों में परमदेव है, वही गुरुओंमें परमं गुरु है और वही समभावसे युक्त धर्मों में परम धर्म है ॥ १२ ॥ पांचवें ज्ञानस्वरूप आत्मा के अस्थिर योगको जीतने पर तथा ज्ञानभावसे पूर्ण ज्ञान होने पर स्वभावसे निर्मलस्वभावरूप सिद्धिकी प्राप्ति होती है ||१३|| आनन्दस्वभाव और आनन्दमय चिदानन्दका चितवन करना, यही स्वभावसे मलस्वरूप कर्मोंका क्षय करना है वह स्वभावसे अनुमोदन करनेरूप तथा निर्मल है ||१४|| जो परसे भिन्न स्वात्माको अनुभवता है, स्वात्मासे भिन्न पररूप पर्यायोंसे तथा तीन प्रकारकी शल्योंसे मुक्त है वह शुद्ध ज्ञानस्वभाव और पर निरपेक्ष शुद्ध चारित्ररूप आत्माको प्राप्त करता है ।। १५ ।। अब्रह्मका सेवन नहीं करना चाहिये, चारों प्रकारकी विकथा और सातों प्रकारके व्यसनोंका त्याग कर देना चाहिये, क्योंकि ज्ञायकस्वभाव आत्मा ज्ञानस्वभाव है ऐसा निर्मल समयका सहकार ही उपासने योग्य है ।। १६ ।। जिनवधन स्वभावरूप है अर्थात् वस्तुस्वभावका दर्शन करने में समर्थ है। उसीके अनुगमनसे मिथ्यात्व कषाय और कमोंको जीतो । इसीसे यह आपा शुद्ध आत्मा और परमात्माका निर्मल दर्शन होता है ||१७|| इष्ट अर्थात् जो मोक्षमार्गमें उपादेयभूत जो शुद्ध आत्मा है उसी पर जिनदेवकी दृष्टि है, अथवा जिसका जिनदेवने उपदेश दिया है वही हमारा इष्ट शुद्ध आत्मा है। उस इष्टमें उपयोगको युक्त करना चाहिये और अनिष्ट जो संसारके प्रयोजन हैं उनका बुद्धिपूर्वक त्याग कर देना चाहिये जो इष्ट है वह सदा इष्ट स्वरूप है। वह निर्मल स्वभाव है अतः उसमें उपयुक्त होनेसे कमका स्वयं क्षय होता है ||१८|| अज्ञानसे जो अत्यन्त दूर हैं, क्योंकि ज्ञानस्वभावसे अनुपम और निर्मल स्वभाववाला है। ज्ञानपर्याय दृष्टिका विषय नहीं है, क्योंकि वह पर्यायदृष्टि है, अतः अति शीघ्र अन्तर दृष्टि होना चाहिये ||१९|| आत्मा आत्मस्वरूप है, आत्मा शुद्धात्मा होने पर वही विमल परमात्मा हो जाता है क्योंकि आत्मा स्वभावसे परमस्वरूप है वह बाह्य रूपसे रहित है और निर्मल ज्ञानस्वरूप है ||२०|| वह निर्मल है, निर्मलस्वभाव है, ज्ञान-विज्ञानरूप है । सम्यग्ज्ञानको उत्पत्तिका हेतु है । यह जिनदेवने कहा है, यही जिनदेवका वचन है । क्योंकि जिनदेवको निमित्त कर मोक्षकी प्राप्ति होती है || २१ || पट्काय जीवों पर विमलभाव को निमित्त कर कृपा करनी चाहिये. क्योंकि प्राणीमात्रके जीव समान ज्ञान दर्शन स्वभाववाले हैं। लिष्ट जीवों पर वह कृपा भी विमल भावरूप होनी चाहिये ||२२|| अत्यन्त अनिष्ट वस्तुका संयोग होने पर विमल शुद्ध स्वभाव के बलसे मध्यस्थ हो जाना चाहिये । जीव स्वभावसे शुद्ध कहा गया है ऐसी शुद्ध दृष्टि होनेसे कमका स्वयं क्षय होता है ||२३|| सब Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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