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________________ ३९२ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ शुद्ध आत्मतत्त्वको अनुभवते हैं, तीनलोक तालाब स्वरूप है, ज्ञानसे वह भरा हुआ है, ऐसा ज्ञानमय शुद्ध जल है | ज्ञानभावसे परिणत पण्डितोंका यही स्नान है ॥ १०॥ सम्यग्दर्शन शुद्ध जल है, आत्मारूपी तालाब उससे पूरी तरह भरा हुआ है। ऐसे जलमें स्नान करके गणधर देव उसीका पान करते हैं । ज्ञानरूपी तालाब अनन्त और ध्रुव है ||११|| आत्मा शुद्ध चेतनास्वरूप है, वह शुद्ध सम्यग्दर्शनके समान ध्रुव है । ऐसे शुद्ध भाव में स्थिर होकर पण्डितजन उस ज्ञानभावरूप स्नान करते हैं ||१२|| तीन प्रकारका मिथ्यात्व, तीन शल्य, कुज्ञान और राग-द्वेषरूप होना यह सब अशुद्ध भावना हैं ||१३|| ऐसी भावनावालेने अनन्तानुबन्धी चार कषायों का पालन किया, पुण्य-पाप भावका पालन किया तथा दुष्ट आठ कर्मोंका पालन किया । किन्तु इसके विपरीत पंडितजन ज्ञानभावरूप स्नान करते हैं ॥ १४ ॥ अशुद्ध भावनावालेने चपल मनको पोषा, द्रव्यकर्म, भावकर्म और नोकर्मको पोषा । किन्तु पण्डितजन कैसे वस्त्रोंका परिधान करते हैं । उनके आभरण और अलंकार कैसे होते हैं ।। १५ ।। धर्मका होना ही उनके वस्त्र हैं रत्नत्रय ही आभरण हैं, समभावसे मुद्रित होना मुद्रिका है और ध्रुव ज्ञानमय मुकुट है ॥ १६ ॥ शुद्ध दृष्टिका अनुभव कार्यकारी है, मिथ्यादृष्टि और असत्यसे दूर रहना चाहिए । अचेतन पदार्थोंमें इष्टानिष्ट बुद्धि न करें ||१७|| शुद्ध स्वरूपका अनुभव करना चाहिए, वही ध्रुव और शुद्ध सम्यग्दर्शन है, वह पूर्ण ज्ञानमय है इस प्रकार बुद्धिमान जनोंकी सदा निर्मल बुद्धि होती है || १८ || लोक मूढ़ता, देव मूढ़ता और पाखण्ड मूढ़ता से सदा दूर रहे। अज्ञान, शरीर आदि आठ मद और शंकादि आठ दोषोंका सेवन न करें ॥१९॥ शुद्ध और प्रयोजनीय आत्मपद ही अनुभवने योग्य है; शंकादि मलोंसे रहित सम्यग्दर्शन ही अनुभवने योग्य है । ज्ञानमय आत्मा शुद्ध सम्यग्दर्शन है । बुद्धिमान जनों की दृष्टिमें ऐसा व्यक्ति ही पण्डित है ॥२०॥ जो आत्माको सदा रागादि परिग्रहसे रहित और तीनलोकमें एक शुद्ध आत्माको अनुभवते हैं ऐसा अनुभव करनेवाले जो पण्डित हैं वे अनुभवियोंमें अग्रस्थानीय हैं ||२१|| केवल पंच परमेष्ठीयों की ही स्तुति करनी चाहिए तथा शुद्ध आत्मतत्त्वकी भावना करनी चाहिए। जो लोकपूज्य पंच परमेष्ठी हैं, पण्डित जन उन्हींको आराध्य मानते हैं । ऐसे पण्डितोंने ही जिन समयकी पूजाकी ॥ २२॥ जिनेन्द्रदेव द्वारा कथित आगमकी जिसने पूजाकी वह पण्डित सदा पूजित होता है । उसीने शुद्ध आत्माकी पूजाकी - अनुभव किया, क्योंकि वही मोक्ष प्राप्तिका अपूर्व साधन है ||२२|| अपूज्य, अदेव, अज्ञान, तीन मूढ़ता और अगुरुको पूजना मिथ्यात्व है यह सकल जन जानते हैं, ऐसी पूजा अनन्त संसारका कारण है ||२४|| शुद्ध तत्त्वका प्रकाशन ही शुद्ध पूजा है ऐसा जिनेन्द्रदेव ने कहा है । पण्डितकी वन्दना पूजा है ऐसा पण्डित नियमसे मोक्ष जाता इसमें संशय नहीं है ||२५|| जिसके शुद्धात्माकी शुद्ध भावना है वही परिपूर्ण शुद्ध है । उसीने शुद्ध आत्मा - अनुभवा ||२६|| जो समीचीन दाता है, शुद्ध भावना सहित पूजा है तथा जिसके हृदय में शुद्ध सम्यग्दर्शन है उसीको शुद्ध आत्माकी भावना होती है ||२७|| जो कार्यकारी ज्ञानमय और ध्रुव सम्यग्दर्शनको अनुभवता है, आराध्य शुद्ध आत्मतत्त्वकी आराधना करता है, क्योंकि ऐसी वन्दना करने योग्य है ||२८|| चारसंघ, शुद्ध आत्मा और शुद्ध समयकी भावना करता है उसे जिनेन्द्रदेवने प्रयोजनीय कहा है ॥ २९ ॥ प्रयोजनीय सात तत्त्व, छह द्रव्य, पाँच अस्तिकाय तथा ध्रुव निश्चयस्वरूप चेतन आत्मा इनकी प्ररूपणा केवलीजिननेकी है ||३०|| तीन प्रकारके मिथ्यात्वका त्याग और तीन प्रकारके कुज्ञानका त्याग होना चाहिये तथा शुद्ध आत्माकी शुद्ध भावना होनी चाहिये । जो भव्यजन ऐसा करते हैं उनका जीवन सफर है ||३१|| ऐसे यथार्थ पूज्य पंच परमेष्ठी की शुद्ध पूजा करनी चाहिये | यह शाश्वत मोक्षश्रीको प्राप्त करनेके लिये व्यवहारनिश्चय स्वरूप मोक्षमार्ग है ॥३२॥ आत्मा है, वही शुद्ध अर्थरूप शुद्ध समय जिसका शुद्ध हृदयसे दिया गया दान है, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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