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________________ ३८२ सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थं (२) दूसरी जैसवाल जाति है। १२८ लेखोंमेंसे इस अन्वयके क्रमांक १२, १५, २०, (२) २१, २४, २६, २९, ४३, ४४, ५२ (२) ६२ और ११२ कुल १५ मूर्तिलेख है। क्रमांक १५ संख्यांक मूर्तिलेखमें इस अन्वयका दूसरा नाम जायसवाल भी अंकित है । वर्तमान में इस अन्वयका एक भी घर बुंदेलखण्ड में नहीं पाया जाता। हो सकता है कि ११वी, १२वीं शताब्दिमें इस अन्वयका मुख्य निवास आगरा सम्भागके समान बुन्देलखण्ड भी रहा होगा। (३) तीसरी जाति गोलापूर्व हैं । इस अन्वयके अहारजीमें क्रमांक ११, २२, २५, ३२, ३४, ३८, ४०, ४१, ५८, ६०, ६४, ८०, ९०, १०१, १०८, १११, आदि २५ मूर्तिलेख है। इन मूर्तिलेखोंमें ३२ संख्यांक लेख वि० सं० १२०२ का और १९ संख्यांक लेख वि० सं० १२०३ का है। बहोरीबन्द गाँवमें भ० शान्तिनाथके पादपीठपर जो लेख अंकित है वह भी लगभग इसी समयका है । इससे इतना तो स्पष्ट ज्ञात हो जाता है कि लगभग १२वीं - १३वीं शताब्दिसे यह सम्भाग इस अन्वयका मुख्य निवास स्थान बना चला आ रहा है। दक्षिणका एक प्रदेश पुराने कालमें गोल्लदेश के नामसे प्रसिद्ध रहा है। यदि इस अन्वयका निकास राजनैतिक या धार्मिक क्रान्तिवश उसी प्रदेशसे हुआ निश्चित हो जाता है तो १०वीं ११वीं शताब्दिक आस-पास इस अन्वयके परिवार वहाँसे आकर महोवा सम्भागमें आकर बसे होंगे यह माना जा सकता है । अभी यह अनुसन्धानका विषय है । ऐतिहासिकोंको इस ओर ध्यान देना चाहिये । (४) चौथी जाति खण्डेलवाल है। इस क्षेत्रपर इस संख्याक छह प्रतिमा लेख पाये जाते हैं । १६ संख्यांक एक अभिहित किया गया है। इससे इस अन्वयका विकास खण्डेला यह निश्चित करने में सहायता मिलती है। जिस समयके में लेख हैं, उस समय अन्वयके परिवार इस सम्भाग में आकर बस गये होंगे ऐसा प्रतीत होता है । अन्वयके ६ १६, ४८, ६५, ७० और ९७ प्रतिमालेख में तो इसे खण्डेलान्वय नामसे भी नगर और उसके आस-पास के प्रदेशसे हुआ है। व्यापाराविके निमित्तसे इस (५) पांचवीं जाति पौरपाट (परवार) है। इस क्षेत्रपर ०५, ४२५० और १०२ लेख ऐसे हैं जिनमें इस अन्वयका पुराना नाम पौरपाट ही अंकित है। इनके सिवाय ११५ संख्याक एक प्रतिमालेख ऐसा अवश्य है जिसमें इस अन्वयका वर्तमान में प्रचलित नाम परवार लिखा गया है। इन प्रतिमा लेखोंमें १०० और १०२ संख्याक दो लेख ऐसे अवश्य हैं जिनमें क्रमशः पुरवार और पौरवाल नाम उल्लिखित हैं । इन दोनों शब्दोंका अर्थ परवार अन्वयके अर्थमें भी हो सकता है। वैसे पुरवार और पौरवाल नामसे प्रख्यात दो अलग जातियाँ बन गई हैं । कहींके किन्हीं परिवारोंने यहाँ आकर जिनबिम्ब प्रतिष्ठा कराकर यहीं विराजमान कर दी हों यह भी सम्भव है। वैसे परवार, पोरवाल पद्यमावतीपुरवाल, पुरवार और जांगड़ा पोरवाल मूलमें एक अन्वयके ही नाम हैं। इस अन्वयका मूल निवास स्थान गुजरात और मेवाड़का कुछ भाग प्रागवाट देश था, इस कारण इसका पुराना नाम प्राग्वाट भी रहा है। यह बाहरसे आकर मुख्यतया चंदेरी सम्भाग में आकर बसी है । इसी कारण इस अन्वयके बहुत ही कम लेख अहारक्षेत्रमें पाये जाते हैं, क्योंकि टीकमगढ़ और उसके आसपास के प्रदेशमें इस अन्वयका फैलाव बादमें हुआ है। (६) एक जातिका नाम मेडवाल है । इसके लिए लेखक ४ में मेडवालान्वय, लेखांक २७ से मइडतवालान्वय, लेख ३३ में मेडतवंश और ले० ४९ में मडवालान्वय अंकित है । सम्भवतः ये चारों नाम एक ही अन्वयके लिए आये जान पड़ते हैं। खंडवा के जिनमन्दिरकी छपर वि० सं० १२४२ का एक खण्डित जिनबिम्ब रखा हुआ है। उसकी आसनपर 'मइडतबालगुर्जरावे' 'कित है। इससे इस अन्वयका मूल नाम मेहत या मइड नामके साथ इसका सम्बन्ध गुजरातसे भी जान पड़ता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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