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________________ चतुर्थ खण्ड : ३५३ यह अर्थ किया जाय कि श्री जिन तारण-तरणने इस द्वारा श्री जिनमन्दिरमें जिनबिम्बकी स्थापनाका सर्वथा निषेध किया है तो फिर उन्हें उसे अशुद्ध न कहकर अपनी उक्त गाथामें उसका सर्वथा निषेध करना चाहिये था । पर उन्होंने ऐसा न लिखकर उसे अशुद्ध कहा है। इसलिये यह सवाल खड़ा हो जाता है कि आगममें अशुद्ध और शुद्ध शब्दोंका प्रयोग किस अर्थमें किया गया है। सवाल मार्मिक है। इस प्रकार गहराईसे विचार करनेपर यह स्पष्ट हो जाता है कि आगममें जहाँ भी 'अशुद्ध' शब्दका प्रयोग हुआ है वह या तो परके आलम्बनसे विवक्षित वस्तुके समझनेके अर्थमें हआ है या फिरसे पदार्थों को मिलाकर एक कहनेके अर्थमें हुआ है। तथा 'शुद्ध' शब्दका प्रयोग अन्यको बुद्धिमें गौणकर जो वस्तु मूलमें जैसी है उसे उसी रूपमें देखनेके अर्थमें हुआ है या फिर केवल अकेली वस्तुके अर्थमें हुआ है। अब देखना यह है कि यहाँ जो श्री जिन तारण-तरणने उक्त गाथामें 'अशुद्ध' शब्दका प्रयोग किया है, सो किस अर्थमें किया है ? विचार कर देखा जाय तो इससे यह अर्थ स्पष्ट हो जाता है कि इस गाथामें उन्होंने पर अर्थात जिन-बिम्बके आलम्बनसे अपने स्वरूपके जाननेके अर्थ में ही 'अशुद्ध' शब्दका प्रयोग किया है। इससे यह सुतरां फलित हो जाता है कि गाथासे आया हुआ 'अशद्ध' शब्द असद्भुत व्यवहारको ही सूचित करता है। वे उस द्वारा ऐसे व्यवहारका निषेध नहीं कर रहे हैं, किन्तु उनका कहना है कि ऐसे व्यवहारके कालमें भी अपनी दृष्टि पर आलम्बनको गौण कर निश्चय पर रहनी चाहिये। तभी वह क्रिया यथार्थ कही जा सकेगी; अन्यथा निसई आदिको तीर्थ मानना निरर्थक हो जायगा । यह तो चरणानुयोगका ग्रन्थ है, फिर भी इसमें किसी भी क्रियाकी जो व्याख्या की गई है वह अध्यात्मपरक ही की गई है। इससे उस क्रियाका करना निरर्थक नहीं जाना जा सकता है। उदाहरणार्थअनस्तमित किसे कहना ? इसकी व्याख्या करते हुए वे लिखते हैं अनस्तमितं कृतं येन मनवचकाययोगभिः । भावं च भावं च अनस्तमितं प्रतिपालनम् ||२९८॥ जिसने मन, वचन और काय इन तीनों योगोंके द्वारा शुद्धभावकी भावनाकी उसने अनस्तमित किया। यह अनस्तमितका पालन है । यह श्री जिन तारण-तरणका कथन है। क्या इस परसे हम यह अर्थ फलित करें कि शुद्ध भावना करना ही अनस्तमित धर्म है। विचार कर देखा जाय तो वे इस द्वारा शुद्ध भावना करनेका उपदेश अवश्य दे रहे हैं, उस कालमें होनेवाली क्रियाका निषेध नहीं कर रहे हैं। यह एक उदाहरण है । इससे हम यह अच्छी तरह जानते हैं कि स्वामीजीके कथन करनेकी शैली ही अध्यात्मपरक रही है। किन्तु इससे कोई यह माने कि उन्होंने व्यवहारका सर्वथा निषेध किया है, तो यह उनके व्यक्तित्वपर सबसे बड़ा लांछन होगा । हम सब उनकी महत्ताको जानते-मानते हैं। अब समय आ गया है कि हम सब उनके व्यक्तित्वको उजागर करें, उसपर आवरण डालने की चेष्टा न करें। यह हमारी आचार-व्यवहार विषयक सबसे बड़ी भूल है कि जो हमारे परिवारके एक अंग हैं, उनको हमने दूर कर दिया। अब समय आ गया है कि हम सब एक हो जाय। इसके लिये जितने चैत्यालय हैं, उनको हम स्वाध्याय मन्दिर मानकर स्वीकार करें और जितने जिनमन्दिर हैं, उन्हें वे धर्मायतन मानकर अंगीकार करें। सोरठिया और गांगड़ परवारोंका क्या हुआ? यह अबतक इतिहास और अनुसन्धानकी वस्तु बनकर रह गई है। पद्मावती पोरवाल (परवार) अभी भी हमारे अंग बने हुए हैं । मात्र उन्हें अपने पास लाने भरकी आवश्यकता है। वे और हम यह नहीं जानते कि हम सबका एक ही वंश है और वह है-पौरपाटवंश । ४५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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