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________________ चतुर्थ खण्ड : ३४७ शब्द जुड़ा हुआ है या 'वाड़' शब्द जुड़ा हुआ है । ऐसी अवस्थामें यह अवश्य ही विचारणीय हो जाता है कि इस अन्वयको प्राचीन लेखोंमें पौरपाट या पौरपट्ट क्यों कहा गया है ? इस नामकरणका कोई मुख्य कारण अवश्य होना चाहिये। . यह तो प्राग्वाट इतिहासके विद्वान लेखक लोढ़ाजीने भी स्वीकार किया है कि पौरपाट (परवार) अन्वयको माननेव ले मात्र दिगम्बर ही पाये जाते हैं । जैसा कि उन्होंने इस इतिहासके पृ० ५४ पर इस बातको स्वीकार करते हुए लिखा भी है-"यह ज्ञाति समूची दिगम्बर जैन है।" इस उल्लेखसे ऐसा लगता है कि इस अन्वय के नामकरणमें इस बातका अवश्य ध्यान रखा गया है कि उससे दिगम्बरत्वके साथ मूल परम्पराका भी बोध हो। पौरपाट' शब्द दो शब्दोंके योगसे बना है-पौर + पाट = पौरपाट । 'पौर' शब्द 'पुर' से भी बना हो सकता है और पुरा शब्दसे भी पौर शब्द बन सकता है। पुर' से स्थान विशेषका बोध होता है और 'पुरा' शब्द प्राचीनताको सूचित करता है। जिन संगठनकर्ताओंने पौरपाटमें पौर शब्दकी योजना की है उन्होंने इस नामकर के 'पौर' शब्दमें इन दोनों बातों को ध्यानमें रखा है ऐसा प्रतीत होता है। (१) मेवाड़ राज्य के अन्तर्गत प्राग्वाट प्रदेशमें पुर नामका एक नगर रहा है। साथ ही. पोरबन्दरके पास भी 'पुरवा' नामक एक कस्बा रहा है। इन दोनों स्थानोंसे इस (परवार) अन्वयका सम्बन्ध आता है, इसलिये लगता है कि इस अन्वयके नामके आदिमें 'पौर' शब्द रखा गया है। (२) दूसरे जैसा कि मैं पहिले लिख आया हूँ 'पुरा' शब्दसे भी 'पौर' शब्द निष्पन्न हुआ है। 'पुरा' अर्थात् पहिलेका अर्थात् 'मूल'। इससे ऐसा ध्वनित होता है कि 'मूल संघको सूचित करने के लिये भी इस नामकरणमें पहिले 'पौर शब्द रखा गया है। 'पट्ट' या 'पाट' शब्द परम्परागत अधिकार वशेषको सूचित करता है । इसलिये ऐसा प्रतीत होता है कि समूची पौरपाट (परवार) जाति सदासे मूल संघ कुन्दकुन्द आम्नायको माननेवालोंमें मुख्य रही है । इसलिये इस जातिकी मुख्यता सूचित करनेके लिये इसे पौरपाट' या 'पौरपट्ट' कहा गया है। आजसे लगभग ७-८ सौ वर्ष पूर्वके एक मुनि या भट्टारकने मूल संघका उपहास करते हुए लिखा भी है मूलगया पाताल मूल नयने न दीसे । मूलहि सव्रतभंग किम उत्तम होसे ।। मूल पिठा परवार तेने सब काढ़ी। श्रावक-यतिवर धर्म तेह किम आवी आढ़ी ।। सकल शास्त्र निरखतां यह संघ दीसे नहीं । चन्द्रकीर्ति एवं वदति मोर पीछ कोठे कही ।। कोई चंद्रकीर्ति नामके मुनि या भट्टारक हो गये हैं, जो नियमसे बीस पंथी (काष्टासंघी) थे। उनका यह मूलसंघी परवार जातके प्रति भयंकर उपहास है। उनकी समझसे उन्हें कहीं भी मूल संघ दिखायी नहीं देता, वह पातालमें चला गया है । वे यह मानते है कि समीचीन ब्रत-क्रिया मूल संघमें कहीं नहीं दिखायी देती, इसलिये वह उत्तम कैसे माना जा जकता है ? मूल संघकी पीठपर एक परवार जाति ही है । उसके द्वारा ही मूलसंघ कुन्दकुन्द आम्नायकी यह सब खुरापात चालू की गयी है । श्रावकधर्म और यतिधर्मके विरोधमें वह कैसे खड़ा हो सकता है ? पूरे शास्त्रोंको देखनेपर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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