SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 377
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३४० : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ २. इसी प्रकार क्षत्रियोंके विषयमें भी वे लिखते हैं "अनेक जनपदोंके नाम वही थे जो उनमें बसनेवाले क्षत्रियों के । (जनपदशब्दात् क्षत्रियादज (पा० सू० ४।१।१६७)। जैसा कि हम ऊपर दिखा चुके हैं पंचाल क्षत्रियजनके बसनेके कारण ही आरम्भमें जनपदका भी पंचाल नाम पड़ा था। पीछे जनपद नामकी प्रधानता हुई और जनपदके नामसे वहाँके प्रशासक क्षत्रियोंके नाम जिन्हें अष्टाध्यायीमें जनपरिषद् कहा गया है लोक प्रसिद्ध हए । पहली स्थितिके कुछ अवशेष आज तक बच गये हैं-जैसे यौधेयों (वर्तमान जोहिये) का प्रदेश जोहियावार (बहावलपुर रियासत), मालवोंका (वर्तमान मलवई लोगोंका), मालवा (फिरोजपुर लुधियाना जिलोंका भाग), दरद क्षत्रियोंका दरिदस्थान, यों तो तत्कालोन संघों और जनपदोंमें क्षत्रियोंके अतिरिक्त और वर्णो के लोग भी थे, उदाहरणार्थ-मालव जनपदके क्षत्रिय मालव तथा ब्राह्मण एवं क्षत्रियेतर मालव्य कहलाते थे....."राजन्यका हिंदी रूप राणा है।" ३. "पाणिनि-व्याकरणमें गृहस्थके लिये गृहपति शब्द है। मौर्यशुग युगमें गृहपति समृद्ध वैश्य व्यापारियोंके लिये प्रयुक्त होने लगा था ।"""उन्हीसे गहोई वैश्य प्रसिद्ध हुए" (पृ० ९२) । "पतंजलिके अनुसार मृतप, चाण्डाल आदि निम्न शूद्र जातियाँ प्रायः ग्राम, घोष. नगर आदि आर्यबस्तियोंमें घर बनाकर रहती थीं। पर जहाँ गाँव और शहर बहुत बड़े थे, वहाँ उनके भीतर भी वे अपने मुहल्लोंमें रहने लगे थे। ये समाजमें सबसे नीची कोटिके शूद्र थे। इनसे ऊपर बढ़ई, लोहार, बुनकर, धोबी, तक्षा, अयस्कार, तन्तुवाय, रजक आदि जातियोंकी गणना भी शूद्रोंमें थी। वे यज्ञ सम्बन्धी कुछ कार्यों सम्मिलित हो सकते थे, पर इनके साथ खानेके बर्तनोंकी छुआछूत बढ़ती जाती थी। इनसे भी ऊँची कोटिके शुद्र वे थे जो आर्योंके घरका नेवता होने पर उन्हीं बर्तनोंमें खा-पी सकते थे जिनमें कि घरके लोग खाते-पीते थे।" ये पाणिनि व्याकरण और कातन्त्रके कुछ उदाहरण हैं जो इस बातके साक्षीरूपमें प्रस्तुत किये गये हैं, जिनसे ज्ञात होता है कि तीर्थंकर महावीरके कालमें या उसके कुछ काल बाद आजीविका आदि कर्मोके आधारपर चारों वर्गों के अन्तर्गत प्रदेशभेद और आचारभेद आदिके कारण विविध जातियाँ बनने लगी थीं। आजीविका भेद भी इन जातियोंके बनने में एक मुख्य कारण है। ___ 'तत्त्वार्थसूत्र'में परिग्रह-परिमाणके प्रसंगसे कुछ ऐसे संकेत मिलते हैं जिनसे हम जानते हैं कि उस कालमें मानवसमाज नीच-ऊँचके भदोंमें बँट गई थी। परिग्रह-परिमाण व्रतके जिन पाँच अतिचारोंका नामोल्लेख उसमें दृष्टिगोचर होता है उनमें इक अतिचारका नाम दास-दासी-व्यतिक्रम भी है। जो व्रती गृहस्थ दास-दासियोंके रखनेकी मर्यादा करके उसका उल्लंघन करता है, वह व्रती गृहस्थ दास-दासी-व्यतिक्रम नामक अतिचार दोषका भागी होता है। इससे हम जानते है कि तत्त्वार्थसूत्रकी रचनाकालके बहुत पहिलेसे समाज नीच-ऊँचके भेदसे अनेक भागोंमें विभक्त हो गया था। कौटिल्यन भी अपने अर्थशास्त्रमें दास-प्रथाका उल्लेख कर इससे छूटने के उपायका भी निर्देश किया है। यद्यपि व्रतो जैन गृहस्थ स्वेच्छासे इस प्रथाको बन्द करनेमें सहायक होते रहे हैं, पर कौटिल्यके अनुसार छुटकारेके रूपमें रुपया देकर भी दास या दासी उससे मुक्त होकर समानताका स्थान पाते रहे हैं । यह लगभग दो हजार वर्ष पूर्व के भारतकी एक झांकी है, जिससे हम जानते हैं कि उस समय मानव समाज अनेक भागोंमें विभक्त हो गया था। अतः इसपरसे यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि वर्तमानमें एक-एक वर्णके भीतर जो अनेक जातियाँ और उपजातियाँ दृष्टिगोचर होती है उनकी नींव बहत पहले पड़ गयी थी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy