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________________ २६ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ इसके अतिरिक्त भी अनेक छोटे-मोटे मुद्दे तय करा लिये गये, ताकि चर्चा विवादका रूप नहीं ले सके। उसमें भी मुख्य महा था कि नियत समय पर दोनों पक्ष अपने-अपने लिखित पत्रोंको सबके समक्ष मात्र पढ़कर ही सुना सकेंगे। कोई भी उस सम्बन्धमें कोई स्पष्टीकरण अथवा टीका-टिप्पणी नहीं कर सकेगा। अर्थात् जो कोई भी उपस्थित रहे वे मात्र सुन सकेंगे कोई कुछ भी बोल नहीं सकेगा तथा उन लिखित पत्रों पर दोनों पक्षों द्वारा नियत किये गये प्रतिनिधि गण ही हस्ताक्षर करेंगे तथा उनमेंसे ही कोई चाहे तो उत्तर पत्रोंका पठन कर सकेगा. अन्य कोई भी विद्वान उस समय किसी प्रकारका हस्तक्षेप नहीं कर सकेगा। इस प्रकार अनेक नियम-उपनियम बननेके पश्चात् चर्चा प्रारम्भ करनेके लिए श्री पं० मक्खन लालजीने शंका प्रस्तुत करनेका आग्रह किया। पण्डितजी साहबने तत्काल स्वीकृति दे दी । इस प्रकार चर्चा प्रारम्भ हो गई । तब पं० मक्खन लालजीने पण्डितजीसे शंका उपस्थित करनेके लिए कहा । पण्डितजीने छूटते ही उत्तर दिया हमको तो कोई शंका है नहीं, आपको ही हमारा कथन आगमानुकूल नहीं लगता है, अतः आपको ही शंका है । आप उपस्थित करें । बुद्धिके अनुसार जो भी सम्भव होगा, निवारण करनेका प्रयत्न करेंगे, आदि-आदि । इस सारे प्रसंगमें कई बार ऐसी स्थितियाँ उपस्थित हुई कि चर्चा प्रारम्भ ही नहीं हो पावेगी । ऐसे समयमें देखा कि पण्डितजी लोह पुरुषकी तरह अपने पक्षपर डटे रहे और पण्डितजीके बलिष्ट तर्कों द्वारा अपर पक्षको आपकी बात स्वीकार करनेके लिए बाध्य होना पड़ा। पण्डितजीकी लम्बी सूझ-बूझका तो मुझे तब परिचय हुआ, जब निर्णोत नियमों-उपनियमोंके कार्यान्वयनके समय उनकी उपयोगिताका मूल्यांकन हआ। विस्तारसे उन सारी बातोंका व्यौरा देना तो सम्भव नहीं है, लेकिन पण्डितजीका व्यक्तित्व सर्वाङ्गीण और अनोखा है, इसका प्रत्यक्ष अनुभव हुआ । श्री पण्डितजीके अदम्य साहसकी तो जितनी भी प्रशंसा की जावे, कम ही है। चर्चामें पण्डितजीके सहयोगी हस्ताक्षर करने वालोंमें तो पहले दिन मैं अकेला एक ही था। दूसरे शब्दों में कहा जावे तो अपर पक्षकी ओर तो सम्पूर्ण भारतवर्ष के उच्चतम कोटिके अनेक विद्वान् थे। परन्तु पण्डितजीके साथ तो एक भी विद्वान् नहीं था । वे अकेले ही थे। लिखित चर्चामें नियम रखा गया था कि प्रथम दिन जो प्रश्न उपस्थित किये जावे अर्थात शंका प्रतिशंका उत्तर-प्रत्युत्तर आदि लिखित रूपमें प्रस्तुत कर सबको सुनाने का समय दोपहर १ बजे (खानिया जो कि जयपुरसे ४ किलोमी० दूर है वहाँ पहुँचकर आचार्य महाराजके सन्मुख बांचकर आदान-प्रदान करनेका) नियत था। उसकी एक प्रति अपर पक्षको एक प्रति मध्यस्थको तथा एक प्रति अपनेस् वयंके पास रखनेका निश्चय किया गया था । इस प्रकार सुवाच्य अक्षरोंमें ३-३ प्रति देना होता था। अपर पक्षकी ओरसे जो भी शंकायें उपस्थित की गई थीं वे इतनी थीं कि उनका दूसरे दिन एक बजे तक सुवाच्य सक्षरोंमें लिखकर ३-३ प्रति देना मुझे असम्भव ही लग रहा था । अतः मैंने पण्डितजी साहबसे कहा कि यह सब सायं ४ बजेसे कल एक बजे तक कैसे सम्भव होगा ? आपको आगम-प्रमाण इकट्ठे करके उत्तर लिखने पड़ेंगे । अकेले व्यक्तिसे यह कैसे सम्भव होगा? लेकिन मुझे वे शब्द अभीतक याद हैं। पंडितजीने कहा कि "हिम्मत हारने वालोंसे काम मेरे साथ नहीं चलेगा। मैं अकेला ही सारा कार्य कर लूगा, आप भी हट जावें।' पण्डितजीके ये शब्द सुनकर मुझमें अतीव उत्साह पैदा हुआ और हम सब उनकी सहायताको जुट गये । दुसरे दिन पण्डितजीके साथ सहयोग करनेके लिये भारत भरके चोटीके विद्वानोंमेंसे मात्र एक ही ऐसे विद्वान निकले जिन्होंने अतीव साहस व उत्साह पूर्वक पण्डितजी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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