SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 368
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चतुर्थ खण्ड : ३३१ का जितना प्रमाण हो, उतना लेना चाहिए । तथा संख्यातका भाग देनेके लिए या गुणा करनेके लिए उत्कृष्ट संख्यातका जितना प्रमाण हो उतना लेना चाहिए।' नियम यह है कि सूच्यंगुलके असंख्यातवें भागका जितना प्रमाण हो उतनी बात पर्यायज्ञानके ऊपर अनन्त भागवृद्धियोंके होने पर एक बार असंख्यात भागवृद्धि होती है । पुनः इस विधिसे प्राप्त हुए ज्ञान पर उतनी ही बार अनन्त भागवृद्धिके होने पर दूसरी बार असंख्यात भागवृद्धि होती है। इस क्रमसे जब असंख्यात भाग भी सूच्यंगुलके असंख्यातवें भाग बार हो लेती है, तब वहाँ प्राप्त हुए ज्ञान पर सूच्यंगुलके असंख्यातवें भाग बार अनन्त भागवृद्धिके होने पर वहाँ असंख्यात भागवृद्धिका स्थान संख्यातभागवृद्धि ले लेती है। इसके आगे पुन उक्त विधिसे दूसरी बार संख्यात भागवद्धि होती है और इस प्रकार जब सूच्यंगुलके असंख्यातव भाग बार संख्यातभागवृद्धियाँ हो लेती है तब उक्त विधिसे ही क्रमशः शेष वृद्धियाँ होती हैं। इनका नाम एक षट्गुणीवृद्धि है । यहाँ एक षट्गुणीवृद्धिमें जितनी बार ये छहों वद्धियाँ प्राप्त होती हैं, उतने ही पर्यायसमास जानके भेद होते हैं। इस प्रकार उत्तरोत्तर षड़गणीव द्धियोंके क्रमसे पर्यायसमास ज्ञानके असंख्यात लोक प्रमाण भेद उत्पन्न होते हैं। इस विधिसे यहाँ जो श्रुतज्ञानके भेद उत्पन्न किए गये हैं. इन सबकी पर्यायसमास-ज्ञान संज्ञा है । इन सबकी पर्यायज्ञान और अक्षरज्ञानके मध्यमें परिगणना की गई है. इसलिए इन सब श्रुतज्ञानके भेदोंको आगममें पर्यायसमास कहा गया है । यह श्रुतज्ञानका दूसरा भेद है। श्र तज्ञानका तीसरा भेद अक्षरज्ञान है । पर्यायसमास ज्ञानका जो अन्तिम भेद है। उसमें सब जीव-राशिका भाग देने पर जो लब्ध आवे, उसे पर्यायसमासज्ञानके अन्तिम भेदमें मिला देने पर प्रथम अक्षर ज्ञानकी उत्पत्ति होती है । वह आगेके श्रुतज्ञानके भेदोंकी अपेक्षा सबसे जघन्य अक्षर श्रतज्ञान हैं। इनके ऊपर दूसरे अक्षरज्ञानकी उत्पत्ति होने पर पर्यायसमास ज्ञानका प्रथम भेद उत्पन्न होता है। इस विधिसे एक-एक अक्षरज्ञानकी वृद्धि द्वारा संख्यात अक्षरज्ञानोंकी वृद्धि होने तक उन सबकी समासज्ञान संज्ञा है । यह श्रुतज्ञानका चौथा भेद है । इसके आगेके श्रुतज्ञानके भेदोंके नाम हैं-पद, पद-समास, संघात, संघातसमास, प्रतिपत्ति, प्रतिपत्तिसमास, अनुयोगद्वार, अनुयोगद्वा रसमास, प्राभृत-प्राभृत, प्राभृतप्राभृतसमास, प्राभृत, प्राभूतसमास, वस्तु, वस्तु वस्तु समास, पूर्व और पूर्व समास । इस प्रकार क्षयोपशमके भेदोंकी मुख्यतासे श्रुतज्ञानके समुच्चयरूप भेदोंकी संख्या २० है ।" ये सब ज्ञान एक-एक अक्षरज्ञानकी वृद्धिसे उत्पन्न होते हैं। स्पष्टीकरण जिस विधिसे अक्षरसमास ज्ञानका किया गया है, उसी विधिसे आगेके समास ज्ञानोंका कर लेना चाहिए। यहाँ इतना विशेष जानना चाहिए कि (१) अक्षरज्ञानके ऊपरकी छह प्रकारकी वृद्धि नहीं होती। कारण कि एक अक्षरज्ञान सकल श्रुतज्ञानके संख्यातवें भाग प्रमाण ही होता है, इसलिए अक्षरज्ञानसे आगेके सब ज्ञानोंमें छह वृद्धियाँ न होकर यथासंभव संख्यातभागवृद्धि और संख्यातगुणवृद्धि ही होती हैं । (२) यहाँ पर्यायज्ञानसे लेकर आगेके सब ज्ञानोंकी उत्पत्तिका जो क्रम स्वीकार किया गया है वह मात्र उत्तरोत्तर एक ज्ञानसे दूसरे ज्ञानमें तारतम्य दिखलानेके लिए ही स्वीकार किया गया है। किन जीवके कब १. गोम्मटसार (जीवकाण्ड), गाथा ३३४; ३. धवला, पृ० १३, पु० २६४ ५. वही, पृ० २६१, सूत्र ४८ २. वही गाथा ३२६ । ४. वही, पृ० २६४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy