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________________ श्रुतधर-परिचय प्रथमं करणं चरणं द्रव्यं नम: यह शान्तिभक्तिका वचन है । इस द्वारा प्रथमानुयोग आदि चार अनुयोगोंमें विभक्त श्रुतको नमस्कार किया गया है। प्रवाहको अपेक्षा श्रत अनादि है। इसकी महिमाका व्याख्यान करते हुए जीवकाण्डमें श्रतज्ञ की मुख्यतासे कहा है कि केवलज्ञान और श्रुतज्ञानमें प्रत्यक्ष और परोक्षका ही भेद है, अन्य कोई भेद नहीं । ऐसा नियम है कि केवल ज्ञानविभूतिसे सम्पन्न भगवान् तीर्थंकर परमदेव अपनी दिव्यध्वनि द्वारा अर्थरूपसे श्रुतकी प्ररूपणा करते हैं और मत्यादि चार ज्ञानके धारी गणधरदेव अपनी सातिशय प्रज्ञाके माहात्म्यवश अंगपूर्वरूपसे अन्तर्मुहूर्तमें उसका संकलन करते हैं । अनादि कालसे सम्यक् श्रुत और श्रुतधरोंकी परम्पराका यह क्रम है। ___इस नियमके अनुसार वर्तमान अवसर्पिणीके चतुर्थ कालके अन्तिम भागमें अन्तिम तीर्थंकर भगवान् महावीर और उनके ग्यारह गणधरोंमें प्रमुख गणधर गौतमस्वामी हुए । भावश्रुत पर्यायसे परिणत गौतम गणधरने ग्यारह अंग और चौदह पूर्वोकी रचना कर लोहाचार्यको दिया। लोहाचार्यने जम्बूस्वामीको दिया। इसके बाद विष्णु, नन्दिमित्र, अपराजित, गोवर्धन और भद्रबाहु ये पाँचों आचार्य परिपाटी क्रमसे चौदह पूर्वके धारी हुए । तदनन्तर विशाखाचार्य, प्रोष्ठिल, क्षत्रिय, जयाचार्य, नागाचार्य, सिद्धार्थदेव धृतिसेन, विजयाचार्य, बद्धिल, गंगदेव और धर्मसेन ये ग्यारह आचार्य परिपाटी क्रमसे ग्यारह अंग और उत्पादपूर्व आदि दस पूर्वोके धारक तथा शेष चार पूर्वोके एकदेश धारक हुए । इसके बाद नक्षत्राचार्य, जयपाल, पाण्डुस्वामी, ध्रुवसेन और कंसाचार्य ये पाँचों ही आचार्य परिपाटी क्रमसे सम्पूर्ण ग्यारह अंगोंके और चौदह पूर्वोके एकदेश धारक हुए । तदनन्तर सुभद्र, यशोभद्र, यशोबाहु और लोहार्य ये चारों आचार्य सम्पूर्ण आचारांगके धारक और शेष अंगों तथा पूर्वोके एकदेशके धारक हुए । आचार्य धरसेन-पुष्पदन्त-भूतबलि तदनन्तर सब अंग-पूर्वोका एकदेश आचार्य परम्परासे आता हुआ धरसेन आचार्यको प्राप्त हुआ । ये सौराष्ट्र देशके गिरिनगर पत्तनके समीप ऊर्जयन्त पर्वतको चन्द्रगुफामें निवास करते हुए ध्यान अध्ययनमें तल्लीन रहते थे । इनके गुणोंका ख्यापन करते हुए वीरसेन स्वामीने (धवला पु० १) लिखा है कि वे परवादीरूपी हाथियोंके समूहके मदका नाश करनेके लिए श्रेष्ठ सिंहके समान थे और उनका मन सिद्धान्तरूपी अमत-सागरकी तरंगोंके समहसे धल गया था। वे अष्टांग महानिमित्त शास्त्रमें भी पारगामी थे। वर्तमानमें उपलब्ध श्रुतकी रक्षाका सर्वाधिक श्रेय इन्हींको प्राप्त है। अपने जीवनके अन्तिम काल में यह भय होने पर कि मेरे बाद श्रुतका विच्छेद होना सम्भव है, इन्होंने प्रवचन वात्सल्यभावसे महिमा नगरीमें सम्मिलित हुए दक्षिणापथके आचार्योंके पास पत्र भेजा। उसे पढ़कर उन आचार्योंने ग्रहण और धारण करनेमें समर्थ नानाप्रकारकी उज्ज्वल और निर्मल विनयसे विभूषित अंगवाले, शीलरूपी मालाके धारक, देश-कुल-जातिसे शुद्ध, समस्त कलाओंमें पारंगत ऐसे दो साधुओंको आन्ध्रदेशमें बहनेवाली वेणानदीके तटसे भेजा। __ जब ये दोनों साधु मार्गमें थे, आचार्य धरसेनने अत्यन्त विनयवान् शुभ्र दो बैलोंको स्वप्न में अपने चरणोंमें विनतभावसे पड़ते हुए देखा । इससे सन्तुष्ट हो आचार्य धरसेनने 'श्रुतदेवता जयवन्त हो' यह शब्द Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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