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________________ प्रथम खण्ड : २३ जैनागम उपासक .श्री बाबूभाई चुन्नीलाल मेहता, जयपुर सत्यतः, विद्वर्य पं० श्री फूलचद्रजी सिद्धान्तशास्त्रीकी धर्म क्षेत्रमें साहित्यिक सेवा अपूर्व है। उनका बहुत बड़ा योगदान है। पंडितजीने खानिया तत्त्वचर्चाके समय अकेले, समाजको गौण करके मात्र आगम और धर्मकी सुरक्षाकी खातिर चर्चा करके जैनधर्मके धर्मस्तंभको गाढ़ा किया पक्का लिया । दढ करके सुरक्षित रखा। खानिया चर्चा में पंडितजीका साहस धैर्य, क्षयोपशम, तर्क, सूक्ष्म सूझ-बूझ, पैनी दृष्टि, दूरदर्शिता और आगमकी उपासना देव, गुरु, धर्मका अत्यन्त भक्तिका परिचय देकर जैन जगतमें स्वर्णाक्षरोंमें नाम अंकित रहेगा। पंडितजी हमारे समाजके गौरव है। धवलादि शास्त्रोंके सिद्धान्त शास्त्रोंके अच्छे ज्ञाता और अध्यात्म प्रवक्ता भी रहे हैं। देव भक्ति विभक्ति और समाज 'उत्कर्षका कार्यमें भी आपका बड़ा-बड़ा योगदान रहा है। सिद्धान्त ग्रन्थोंका सम्पादन और अनुवाद करके धर्म प्रेमी समाजपर बहुत अनुग्रह किया है। और अस्वस्थ होते हए भी आज दिन तक भी स्वतः साहित्य लेखके मंगल कार्यमें अविरत लगे हुए है। उनका सम्मान जितना किया जाय उतना कम है। पंडितजीकी मंगलमय ध्रुवकारण परमात्माका आश्रय करके शास्त्र निवेदन और भक्तिका फल भिन्न वस्तुभूत ज्ञानमय परमात्माका श्रद्धान, ज्ञान और अनुभवन होकर अतिन्द्रिय आत्मिक लाभको प्राप्त हों। यही मंगल कामना करता हूँ। संचारिणी ज्ञानशिखा • डॉ. हरीन्द्रभूषण जैन, उज्जैन पूज्य पंडितजी के बहुमुखी व्यक्तित्वसे सम्बन्धित अनेक महत्त्वपूर्ण बातें हैं जिन्हें समग्ररूपसे लिख पाना अशक्य है। २-११-४४ को कलकतामें वीर शासन महोत्सवके अवसरपर दि० जैन विद्वत्परिषद्की स्थापना हुई थी। आदरणीय पं० फूलचन्द्रजीके मंगलाचरणसे कार्य प्रारम्भ हुआ। तत्कालीन प्रबन्चकारिणीके पदाधिकारियोंमें आप संयुक्त मंत्री थे। १९५५ के द्रोणगिरि अधिवेशनकी अध्यक्षता पं० फलचन्द्रजीने की थी। इस सम्मेलनकी महत्त्वपूर्ण विशेषता थी-एक बृहद् जैन शिक्षा सम्मेलनको आयोजना, जो सागरमें माननीय पं० वंशीधरजी न्यायालंकार, इन्दौरकी अध्यक्षतामें सम्पन्न हुआ जिसमें जैन धर्मके नवीन पाठ्यक्रम का निर्माण किया गया था। ___आदरणीय पं० फूलचन्द्रजी मूर्तिमान्, चलते-फिरते जैन सिद्धान्त हैं। उन्होंने अपने जीवनका बहुभाग, दि. जैन मूलागम-षट्खण्डागमकी धवला, जयधवला, महाधवला टीकाओंके अध्ययन, मनन, विवेचन, शोध एवं हिन्दी अनुवाद कार्यमें व्यतीत किया है । आज भी वे, अप्राप्य उन्हीं ग्रन्थोंकी द्वितीयावृत्ति हेतु इनके संशोधन कार्यमें व्यस्त हैं। ___ मुझ जैसे अनेक नई पीढ़ी एवं नई पद्धतिके जैनविद्वानोंके लिए वे कल्पवृक्ष साबित हुए हैं । ऐसे विद्वानोंको सदा अध्ययन, शोध एवं साहित्य निर्माणकी प्रेरणा देना और उनके मार्गमे आनेवाली बाधाओंको दूर करना पंडित जीका स्वभाव रहा है। पंडित जीकी अपनी एक महत्वपूर्ण विशेषता है, और वह है बुन्देलखण्डके प्रति अतिशय अनुराग । इस अनुरागसे प्रेरित होकर उन्होंने वाराणसीमें अध्ययनार्थ आनेवाले बुन्देलखण्ड प्रान्तके छात्रोंको सहायताके लिए क्या कुछ नहीं किया, इस बातको सभी विद्वान् एवं छात्र अच्छी तरह जानते हैं। हम ऐसी संचारिणी ज्ञानशिखाके प्रति अपनी श्रद्धा-भक्ति समर्पित करते हुए भगवान् जिनेन्द्रदेवसे प्रार्थना करते हैं कि पंडित जी चिरायु होकर जैन साहित्य, समाज एवं राष्ट्रकी सेवा करते रहें। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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