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________________ चतुर्थ खण्ड : २९७ इतनी ही है कि व्यवहार रत्नत्रय मोक्ष का परम्परा निमित्त है और निमित्त कारणको जो उपचरित शब्द द्वारा पुकारा जाता है वह इसलिए पुकारा जाता है कि निमित्त कारण स्वयं (आप) कार्य परिणत न होते हए भी उपादानके कार्यरूप परिणत होनेमें सहायक होता है । वहाँ इस प्रसंगमें दो-तीन बातें और लिखी हैं । एक बात तो यह लिखी है कि उपचार पदार्थमें होता है और शब्द उस उपचरित अर्थका प्रतिपादन करता है । दूसरी बात यह लिखी है कि कुम्भकार व्यक्तिमें कुम्भ निर्माणका सहायक होने रूप व्यवहार कर्तृत्व अर्थात् निमित्तकर्तृत्व पाया जाता है । फलितार्थरूपमें तीसरी बात यह लिखी है कर्तृत्व दो प्रकारका है-एक उपादान कर्तृत्व और दूसरा निमित्त कर्तृत्व । व्यवहार कारण क्या वास्तविक कारण है ? उपचारके विषयमें समग्र वक्तव्य का यह सार है। इसमें वहीं जो यह कहा गया है कि 'उपचार पदार्थमें होता है'-सो इसका अर्थ तो यह हुआ कि वचन और बुद्धिके द्वारा किसी विवक्षित पदार्थ में किसी अन्य पदार्थका उपचार किया जाता है वह पदार्थ स्वयं स्वरूपसे उपचरित नहीं हुआ करता। और जब उसमें उपचार कर लिया जाता है, तो उसे व्यवहारसे मुख्यके समान कार्यकारी भी मान लिया जाता है। और इसीलिए कार्य कारण परम्परामें जितना कथन सद्भूतव्यवहारनयसे किया जाता है वह सब कथन असद्भुत व्यवहारनयसे भी किया जाता है। उदाहरण स्वरूप श्री समयसारकी गाथा १०७ पर दृष्टिपात कीजिए। इसमें व्यवहारनयसे (असद्भूत व्यवहारनयसे) जीवको पुद्गल कर्मका उत्पादक, उसे करने वाला, बाँधने वाला, परिणमानेवाला और ग्रहण करने वाला कहा गया है। परमार्थसे पुद्गल कार्मणवर्गणाएँ ही कर्मकी उत्पादक, उसे करनेवाली बाँधनेवाली, परिणमाने वाली और ग्रहण करने वाली होती है, जीव नहीं। फिर भी अमुक प्रकारके जीवके होनेपर अमुक प्रकारको कार्मणवर्गणाओंके परिणमनके नियमको देखकर उक्त प्रकारका वचन कहा गया है। यही यहाँ उपचार है। इससे स्पष्ट है कि कोई भी पदार्थ स्वरूपसे उपचरित नहीं हुआ करता, किन्तु जब जिस द्वारा निश्चयकी प्रसिद्धि हो उसे ख्यालमें रखकर उसमें निमित्तपनेका उपचार किया जाता है या प्रयोजन विशेष बतलाया जाता है। उस पुस्तकके अनुसार जिसे अविनाभाववश असद्भूत व्यवहारनयसे निमित्त कारण कहा गया है वह उपादान कारणके कार्यमें सहायक होता है। इसके स्थानमें असद्भुत व्यवहारनयसे वहाँ यह भी कहा गया है कि वह स्वयं अन्य द्रव्यके कार्यको करता है तो भी कोई आपत्ति नहीं थी। किन्तु वहाँ नय विवक्षाको ध्यानमें लिए बिना उक्त प्रकारकी प्ररूपणाकी गई है यही मुख्य आपत्ति है । उस पुस्तकके उस कथनसे ऐसा भासित होता है कि 'व्यवहार हेतु उपादानके कार्यमें वास्तवमें सहायक होता है' जो जिनागमके सर्वथा विरुद्ध है। जबकि वस्तुस्थिति यह है कि बाह्य हेतु अन्यके कार्यका वास्तवमें हेतु नहीं है। उसमें अविनाभाववश हेतुता आरोपित की गई है। वह उपादानके कार्यमें वास्तवमें सहायक नहीं है, उसे व्यवहारसे सहायक कहा गया है। विचार कर देखा जाय तो वह एकने दूसरेका कार्य किया इस व्यवहारका हेतु है, इसलिए वह अन्यके कार्यका व्यवहार हेतु कहलाता है। क्या बन्धका कारण ही मोक्षका कारण है ? इस दृष्टिसे व्यवहार मोक्षमार्गके विषयमें जब विचार करते हैं तो उससे भी यही फलित होता है कि मन, वचन और कायकी शुभ प्रवृत्तिरूप व्रत-संयमादिकमें वास्तव में मोक्षमार्गपना नहीं है। यह ठीक है कि जब तक ज्ञान (आत्मा) का कर्म (शुभाशुभ भाव) विरति भलीभांति पूर्णताको प्राप्त नहीं होती है तब तक ज्ञान और कर्मका समुच्चय भी रहता है, इसमें कोई हानि नहीं है। किन्तु यहाँ भी आत्मामें अवशपने जो कर्म प्रगट होता है वह बन्धका ही हेतु है और जो एक परमज्ञान है वही एक मोक्षका कारण है। यद्यपि आगममें शुभभाव रूप व्रत, संयम, दान, पूजा आदिको परम्परा मोक्षका कारण कहा गया है सो इसका आशय क्या है इसे भी यहाँ समझ लेना चाहिए । कर्मशास्त्र में यह वचन आया है कि अणुव्रत और ३८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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