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________________ प्रथम खण्ड : २१ सहृदय पंडितजी .पं० कुंजीलाल जैन, फिरोजाबाद श्रीमान् सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्रीको अभिनन्दन ग्रन्थ भेंट किया जा रहा हैजानकर बड़ी प्रसन्न ता हुई। वे इसके सर्वथा योग्य हैं। नहीं तो आजके अर्थ और तिकड़म प्रधान युगमें योग्यतामात्र अभिनंदन किये जानेकी कसौटी नहीं रह गई है। सिद्धान्त ग्रन्थोंके वे अनुपम विद्वान् है इस रूपमें तो उनकी ख्याति है ही परन्तु वे इतने सहृदय भी हैं इसका अनुभव कर मुझे सुखद आश्चर्य हुआ। पं० पूज्य आचार्य श्री समन्तभद्रजी महाराजकी चरणरज लेने तथा क्षेत्रकी वन्दना करने जब मैं कुंभोज (बाहुबली) पहुँचा था उस समय पंडितजी वहाँ अपनी 'तत्वमीमांसा' की विशद व्याख्या करते हए ठहरे थे। मैं वहाँ एक दिनके लिये गया था परन्तु विरोधीकी बातको धैर्यपूर्वक सुनना एवं उसे यदि वह उचित हो तो स्वीकार भी कर लेना, आजके युगमें उन जैसे उद्भट विद्वान्के लिये 'अहं' का प्रश्न बने बिना नहीं रहता। चर्चामें रस आनेसे मैं वहाँ ३ दिन ठहर गया। विचारोंमें अन्तर होते हुए भी कटुताका लेश भी नहीं आने पाया। इतनी वृद्ध अवस्थामें भी पंडितजीने मेरी सुविधाओंकी बड़ो चिन्ता रक्खी । पंडितजी शतायु एवं नीरोग रहकर आर्ष सिद्धान्तोंका बिना किसी झिझकके जिस प्रकार कल्पित तीर्थकर सूर्यकीर्तिकी प्रतिभाका विरोध किया है-प्रचार करते रहें ऐसी श्री जिनेन्द्र चरणोंमें प्रार्थना है। मेरे श्रद्धा सुमन .५० प्रकाश हितैषी, दिल्ली आजसे ५८ या ६० वर्ष पूर्व जब मैं बीना इटावा (सागर) की नाभिनन्दन दि० जैन पाठशालामें पढ़ता था। उस समय पं० फूलचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्री वहाँके प्रधानाध्यापक थे। तबसे में पंडितजीको निकटसे जानता हैं। उस समय आप जैन समाजमें समाजसुधारक एवं रूढ़ियोंके विरोधमें आवाज उठानेवाले प्रमख विद्वान माने जाते थे। जो कि इसका श्रेय अन्य लोगोंको मिला तथा राष्ट्रीय क्षेत्रमे वहाँके प्रमुख कार्यकर्ताओमें गण्य थे। छात्रोंसे अपनी सन्तानकी तरह प्यार करते थे। सभी त्यौहारोंपर घर जैसा मिष्ठान्न भोजन छात्रोंको कराना, उनकी हर तरहकी चिन्ता करना, उनकी सुविधाका ध्यान आपकी अपनी विशेषता थी। जितने आप व्यवस्था प्रिय थे, उतने ही पढ़ाई में बड़े सक्त थे। पढ़ाईमें कमजोरी दिखाने के कारण मुझे भी १-२ मर्गा बनना पड़ा था। उस समयके छात्र भी अपने गुरुका हार्दिक सत्कार करते थे । उनके अगाध पाण्डित्यका परिचय तो धवल, जयधवल आदि करणानयोगके महान जटिल ग्रन्थोंके सम्पादनमें एवं खानिया चर्चाके समय प्राप्त हुआ है । अपने जितने बड़े विद्वान् हैं, उतने ही सरल हैं । असहाय लोगोंको हर प्रकारका सहयोग देनेके आपकी स्वभावमें जन्मजात संस्कार हैं। सिद्धान्तके रक्षणके लिए आपको कई संस्थाओंसे सम्बन्ध तोड़ देना पड़ा है। सोनागढ़में भी जब व्यक्ति पूजाका महत्त्व बढ़ा तो आपने स्पष्ट कह दिया कि मैं सब प्रकारसे आपके इस गुरुडमवादसे सम्बन्ध विच्छेद करता हूँ। आपने लौकिक तुच्छ स्वार्थके लिए सिद्धान्तकी बलि कभी नहीं चढ़ने दी । मेरी मंगलकामना है कि आदरणीय शास्त्रीजी इसी प्रकार धर्म और समाजकी सेवा करते रहें। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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